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कारिका ११० ]
अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
नाप्याव्या
वेदवाक्यार्थस्यान्ययोगव्यवच्छेदेन निर्णयः कत्तुं शक्यते, सर्वथाविशेषाभावात् । तत्राक्षेपसमाधानानां समानत्वादिति देवागमालङ कृतौ तत्त्वार्थालङ्कारे विद्यानन्दमहोदये च विस्तरतो निर्णीतं प्रतिपत्तव्यम् । ततो न केनचित्पुरुषेण व्याख्याताद्व ेदाद्धर्माद्युपदेशः समवतिष्ठते । ख्यातात्, तस्य स्वयं स्वार्थप्रति गदकत्वेन तदर्थविप्रतिपत्त्यभावप्रसङ्गात् । दृश्यते च तदर्थविप्रतिपत्तिर्वेदवादिनामिति न वेदाद्धर्माद्युपदेशस्य सम्भवः, पुरुषविशेषादेव सर्वज्ञवीतरागात्तस्य सम्भवात् । ततो न धर्माद्य ुपदेशासम्भवः, पुरुषविशेषस्य सिद्धेः, यः सर्वज्ञरहितं जगत् साधयेदिति कुतोऽर्थापत्तिः सर्वज्ञस्य बाधिका ?
[आगमस्य सर्वज्ञाबाधकत्ववर्णनम् ]
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$ २८३. यदि पुनरागमः सर्वज्ञस्य बाधकः, तदाऽप्यसावपौरुषेयः
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पूर्वक निर्णय करना शक्य नहीं है, क्योंकि उनमें एक-दूसरेसे कुछ भी विशेषता नहीं है - एक अर्थ से भिन्न दूसरे अर्थोंमें आक्षेप और समाधान दोनों समान हैं अर्थात् उन अर्थों में जो आपत्तियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं उनके परिहार भी उपस्थित किये जा सकते हैं और इसलिये आक्षेप तथा समाधान दोनों बराबर हैं । इस बातका देवागमालङ कृति ( अष्टसहस्री ), तत्त्वार्थालङ्कार (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक) और विद्यानन्दमहोदय में विस्तारसे निर्णय किया गया है, अतएव वहाँसे जानना चाहिये । अतः किसी पुरुषद्वारा व्याख्यात वेदसे धर्मादिकका उपदेश व्यवस्थित नहीं होता । अव्याख्यात वेदसे भी वह नहीं बनता है, क्योंकि वह स्वयं अपने अर्थका प्रतिपादक होनेसे उसके अर्थ में विप्रतिपत्ति ( विवाद ) के अभावका प्रसंग आता है । तात्पर्य यह कि अव्याख्यात वेद जब स्वयं अपने अर्थका प्रतिपादक है तो उसके अर्थ में विवाद नहीं होना चाहिये और उससे एक ही अर्थ प्रतिपादित होना चाहिए। पर वेदवादियोंके उसके अर्थ में विवाद देखा जाता है - एक ही वेदवाक्यका भाट्ट भावना, ब्रह्माद्वैतवादी विधि और प्राभाकर नियोग अर्थ बतलाते हैं और ये तीनों परस्परविरुद्ध हैं । अतः वेदसे धर्मादिका उपदेश सम्भव नहीं है, किन्तु सर्वज्ञ और वीतराग पुरुषविशेष से ही सम्भव है । अतएव धर्मादिका उपदेश असम्भव नहीं है, क्योंकि पुरुषविशेष सिद्ध है जिससे वह ( धर्मादिके उपदेशका अभाव ) जगतको सर्वज्ञरहित सिद्ध करता है । ऐसी हालत में अर्थापत्ति सर्वज्ञकी बाधक कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ।
1. द 'तदापि स' ।
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