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________________ आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ११० द्वेषविकलत्वात् । अन्यथा तद्व्याख्यानस्य शिष्टपरम्परया परिग्रहविरोधात् । ततो वेदस्य व्याख्याता तदर्थज्ञ एव न पुनः सर्वज्ञः, तद्विरागद्वेषरहित एव न पुनः सकलविषयरागद्वेषशून्यो यतः सर्वज्ञो वीतरागश्च पुरुषविशेषः क्षम्यत इति केचित्; तेऽपि न मीमांसकाः; सकलसमयव्याख्यानस्य यथाथतानुषङ्गात् । $ २८२. स्यान्मतम् —– समयान्तराणां व्याख्यानं च यथार्थम्, बाधकप्रमाणसद्भावात्, प्रसिद्ध मिथ्योपदेशव्याख्यानवत्, इति तदपि न विचारक्षमम्; वेद [ार्थ ] व्याख्यानस्यापि बाधकसद्भावात् । यथैव हि सुगतकपिलादिसमयान्तराणां परस्परविरुद्धार्थाभिधायित्वं बाधकं तथा भावना- नियोगविधिधात्वर्थादिवेदवाक्यार्थव्याख्यानानामपि तत्प्रसिद्धमेव । न चैतेषां मध्ये भावनामात्रस्य नियोगमात्रस्य विधिमात्रस्य ' वा ३०८ हैं। यदि ऐसा न हो तो उनका व्याख्यान शिष्टपरम्पराद्वारा ग्रहण नहीं हो सकता । इसलिये वेदका व्याख्याता वेदार्थज्ञ ही है, सर्वज्ञ नहीं तथा वेदार्थविषयमें ही वह रागद्वेषरहित है. समस्त विषयमें रागद्वेषरहित नहीं है, जिससे सर्वज्ञ और वीतराग पुरुषविशेष स्वीकार किया जाय ? समाधान - आप विचारक नहीं हैं, क्योंकि इस तरह समस्त मतों का व्याख्यान यथार्थ हो जायगा । तात्पर्य यह कि जिस पद्धति से आप वेदार्थव्याख्यानमें अज्ञानादिदोषोंके अभावका समर्थन करते हैं उसी पद्धतिसे सभी मतानुयायिओंके शास्त्रार्थव्याख्यान भी उक्तदोषोंसे रहित सिद्ध हो सकते हैं और उस हालतमें उन्हें अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । $ २८२. शंका - मतान्तरोंके व्याख्यान यथार्थ नहीं हैं, क्योंकि उनमें बाधक प्रमाण मौजूद हैं, जैसे प्रसिद्ध मिथ्या उपदेशों के व्याख्यान ? समाधान- यह शंका भो विचारसह नहीं है, क्योंकि वेदार्थव्याख्यानमें भी बाधक विद्यमान हैं । प्रकट है कि जिस प्रकार सुगत, कपिल आदिके मतोंके व्याख्यानोंमें परस्परविरोधी अर्थका प्रतिपादनरूप बाधक मौजूद है उसी प्रकार भावना, नियोग और विधिरूप धात्वर्थ आदि वेदार्थव्याख्यानों में भी वह ( परस्परविरोधी अर्थका प्रतिपादनरूप बाधक ) प्रसिद्ध है । और इन व्याख्यानोंमें केवल भावना, केवल नियोग अथवा केवल विधि ही वेदवाक्यका अर्थ है, अन्य नहीं, ऐसा दूसरेका निराकरण 1. मु'यथार्थभावानु' | 2. मु स द प्रतिषु पाठोऽयं नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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