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________________ कारिका ११०] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि ३०७ सकलविषयरागद्वेषप्रक्षयो ज्ञानप्रकर्षो वा वेदार्थ व्याचक्षाणस्योपयोगी। यो हि यव्याचष्टे तस्य तद्विषयरागद्वेषाज्ञानाभावः प्रेक्षावद्भिरन्विष्यते, रागादिमतो विप्रलम्भसम्भवात, न पुनः सर्वविषये, कस्यचित्क्वचिच्छास्त्रान्तरे यथार्थव्याख्याननिर्णयविरोधात् । तथापि तदन्वेषणे च सर्वज्ञवीतराग एव सर्वस्य शास्त्रस्य व्याख्याताऽभ्युपगन्तव्य इत्यसर्वज्ञशास्त्रव्याख्यानव्यवहारो निखिलजनप्रसिद्धोऽपि न भवेत् । न चैदंयुगीनशास्त्रार्थ व्याख्याता कश्चित्प्रक्षीणाशेषरागद्वेषः सर्वज्ञः प्रतीयते, इति नियतविषयशास्त्रार्थपरिज्ञानं तद्विषयरागद्वेषरहितत्वं च यथार्थव्याख्याननिबन्धनं तद्व्याख्यातुरभ्युपगन्तव्यम्। तच्च वेदार्थव्याचक्षाणस्यापि ब्रह्म-प्रजापति-मनु-जैमिन्यादे विद्यते एव, तस्य वेदार्थविषयज्ञानरागकरनेवालेके लिये समस्तविषयक राग-द्वेषका अभाव और ज्ञानका प्रकर्ष ( समस्त पदार्थोंका ज्ञान ) उपयोगी नहीं है। प्रकट है कि जो जिसका व्याख्याता है उसके उस विषयका राग-द्वेष और अज्ञानका अभाव प्रेक्षावान् स्वीकार करते हैं; क्योंकि वह उस विषयमें यदि रागादियुक्त होगा तो उसके विप्रलम्भ-अन्यथा कथन सम्भव है। प्रेक्षावान् उसे सब विषयमें रागादिरहित नहीं मानते हैं, क्योंकि किसी व्यक्तिके दूसरे शास्त्रमें यथार्थ व्याख्यान करनेका निश्चय नहीं बनता है। फिर भी उसके सब विषयमें रागादिका अभाव मानें तो सर्वज्ञवीतराग ही सब शास्त्रोंका व्याख्याता स्वीकार करना चाहिये और इस तरह असर्वज्ञकृत शास्त्रव्याख्यानका लोकप्रसिद्ध व्यवहार भी नहीं हो सकेगा। इसके अलावा, इस युगका कोई शास्त्रार्थव्याख्याता सर्वथा रागद्वेषरहित और सर्वज्ञ प्रतीत नहीं होता। अतः कुछ विषयोंका शास्त्रार्थज्ञान और कुछ विषयोंके रागद्वेषरहितपनेको ही यथार्थ व्याख्यानका कारण उन विषयोंके व्याख्याताके मानना चाहिये और यथार्थ व्याख्यानकी कारणभूत ये दोनों बातें वेदार्थका व्याख्यान करनेवाले ब्रह्म, प्रजापति, मनु और जैमिनि आदिके भी मौजूद ही हैं, क्योंकि वे वेदार्थके विषयमें अज्ञान, राग और द्वेषरहित 1. मु स प 'वेदार्थं व्या' । 2. मु स प 'कस्यचिच्छास्त्रा' । 3. व 'तथापि तदन्वेषणे च' पाठस्थाने 'तथा च' । 4. मु स 'शास्त्रव्याख्या। 5. व 'मनुप्रमुखस्य जैमिन्या' । 6. द 'तदर्थ'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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