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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका
[ कारिका ११०
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वद्वा । न हि स गुरुपूर्वक्रमायातो न भवति वेदार्थो वा । न चावितथः प्रतिपद्यते मीमांसकैस्तद्वद् "अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम:" [ इत्यादिवेदवाक्यस्याप्यर्थः कथं वितथः पुरुषव्याख्यानान्न शक्येत वक्तुम् ?
$ २८१. यदि पुनर्वीतरागद्वेषमोहो वेदस्य व्याख्याता प्रतिज्ञायते, तदा स एव पुरुषविशेष: सर्वज्ञः किमिति न क्षम्यते वेदार्थानुष्ठानपरायण एव वीतरागद्वेषः पुरुषोऽभ्युपगम्यते, वेदार्थव्याख्यानविषय एव रागद्वेषाभावान्न पुनर्वोतसकलविषयरागद्वेषः कश्चित् कस्यचित्क्वचिद्विषये वीतरागद्वेषस्यापि विषयान्तरे रागद्वेषदर्शनात् । तथा वेदार्थविषय एव वीतमोह : ' पुरुषस्तद्व्याख्याताऽभ्यनुज्ञायते न सकलविषये, कस्यचित्क्वचित्सातिशयज्ञानसद्भावेऽपि विषयान्तरेष्वज्ञानदर्शनात् । न च
जैसे उपनिषद्वाक्यका अर्थ (ब्रह्म) अथवा ईश्वरादि अर्थवाद ( ईश्वरस्तुति ) । तात्पर्य यह कि यद्यपि उपनिषद्वाक्य वेदवाक्य ही है पर ब्रह्माद्वैतवादी उसका ब्रह्म अर्थ और नैयायिक - वैशेषिक ईश्वरादि अर्थस्तुति करते हैं । और यह नहीं कि वह गुरुपरम्पराके क्रमसे चला आया नहीं है, अथवा वेदार्थ नहीं है । पर मीमांसक उसे सम्यक् नहीं बतलाते । उसी प्रकार " जिसे स्वर्गकी इच्छा है वह ज्योतिष्टोम याग करे" [ ] इत्यादि वेदवाक्यका भी अर्थ पुरुषका व्याख्यान होनेसे मिथ्या क्यों नहीं कहा जा सकता ? अर्थात् वह भी मिथ्या कहा जा सकता है, क्योंकि उसका व्याख्याता रागादिदोषयुक्त पुरुष है ।
$ २८१. यदि वेदका व्याख्याता राग, द्वेष और मोह ( अज्ञान ) से रहित पुरुष स्वीकार करें तो उस पुरुषविशेषको ही सर्वज्ञ क्यों नहीं मान लिया जाता ? अर्थात् उसे सर्वज्ञ ही मान लेना चाहिए ।
शंका - वेदार्थके अनुष्ठानमें प्रवीण पुरुषको ही हम राग-द्वेषरहित मानते हैं, क्योंकि वेदार्थ के व्याख्यानविषयमें ही उसके राग और द्वेषका अभाव है न कि कोई सम्पूर्ण विषयमं रागद्वेषरहित है । कारण, कोई किसी विषय में राग-द्वेषरहित होता हुआ भी दूसरे विषयमें रागी और द्वेषी देखा जाता है । इसी तरह वेदार्थव्याख्याता पुरुषको हम वेदार्थविषयमें हो मोह ( अज्ञान ) रहित स्वीकार करते हैं, सम्पूर्ण विषय में नहीं, क्योंकि कोई किसी विषय में विशिष्ट ज्ञानी होनेपर भी दूसरे विषयोंमें उसके अज्ञान देखा जाता है । दूसरी बात यह है कि वेदार्थका व्याख्यान
1. मु स प 'वीतमोहपुरुष' ।
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