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________________ २२० आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९६ "दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥" [तत्त्वसं० द्वि० भा० ३१६८ उद्ध ० ] इति । [सर्वज्ञाभाववादिनो भट्टस्य निराकरणम् ] ६०६७. अत्राभिधीयते-यत्तावदुक्तम् "विवादाध्यासितं च प्रत्यक्ष न धर्मादि सूक्ष्माद्यार्थविषय, प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वात्, अस्मदादिप्रत्यक्षवत्' इति । तत्र किमिदं प्रत्यक्षम् ? “सत्म्म्प्र योगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम" [ मीमांसाद० ११११४] इति चेत्, तहि विवादाध्यासितस्य प्रत्यक्षस्यैतत्प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वेऽपि न धर्मादिसधमाद्यर्थविषयत्वाभावः सिद्धयति । यादृशं हीन्द्रियप्रत्यक्षं प्रत्यक्षशब्दवाच्यं धर्माद्यर्थासाक्षास्कारि दृष्टं तादृशमेव देशान्तरे कालान्तरे च विवादाध्यासितं प्रत्यक्ष तथा साधयितु युक्तम्, तथाविधप्रत्यक्षस्यैव धर्माद्यविषयत्वस्य साधने प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वस्य हेतोर्गमकत्वोपपत्तेस्तस्य तेनाविनाभावनियम "जो व्यक्ति आकाशमें अभ्यासद्वारा दश हाथ ऊपर कूदकर जाता है वह सौ अभ्यासोंसे भी एक योजन जानेमें समर्थ नहीं है।'' [ त० सं० ३१६८ उ०] ६२६७. समाधान-आपकी इस शंकाका उत्तर निम्न प्रकार है:जो पहले यह कहा गया है कि "विचारकोटिमें स्थित प्रत्यक्ष धर्मादिक पदार्थोंको विषय नहीं करता है, क्योंकि वह प्रत्यक्षशब्दद्वारा कहा जाता है, जैसे हम लोगों आदिका प्रत्यक्ष।" उसमें हमारा प्रश्न है कि यह प्रत्यक्ष कौन-सा है ? यदि कहें कि "आत्मा और इन्द्रियोंके सम्यक सम्बन्ध होनेपर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है" [ मी. द. १३११४ ] ऐसा प्रत्यक्ष वहाँ विवक्षित है वो विचारकोटिमें स्थित प्रत्यक्ष ( अहंत प्रत्यक्ष) इस प्रत्यक्षसे भिन्न है और इसलिये प्रत्यक्षशब्दद्वारा कहा जानेपर भी उसके धर्मादिक सूक्ष्मादि पदार्थोंकी विषयताका अभाव सिद्ध नहीं होता। प्रकट है कि जैसा इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रत्यक्षशब्दद्वारा कहा जाता है और धर्मादि पदार्थोंका असाक्षात्कारी देखा जाता है वैसा ही दूसरे क्षेत्र और दूसरे कालमें विचारस्थ प्रत्यक्ष प्रत्यक्षशब्दका वाच्य और धर्मादि पदार्थोंका असाक्षात्कारी सिद्ध करना युक्त है, क्योंकि वैसे प्रत्यक्षके ही धर्मादि पदार्थों की अविषयता सिद्ध करनेमें 'प्रत्यक्षशब्दद्वारा कहा जाना' हेतु 1. स 'धर्माद्यसाक्षा', द 'धर्माद्यर्थसाक्षा' । 2. मुस'वाच्यस्य' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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