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________________ का १६ कारिका ९६] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि २८९ माणत्वात्, परिमाणवत्', नेति वदन्नपि निरस्तः, प्रत्यक्षादिज्ञानव्यक्तिध्वन्यतमज्ञानव्यक्तेरेव परमप्रकर्षगमनसिद्धः, तद्वयतिरेकेण ज्ञानसामान्यस्य प्रकर्षगमनानुपपत्तेस्तस्य निरतिशयत्वात् । २६६. यदपि केनचिदभिधीयते-श्रुतज्ञानमनुमानज्ञानं वाऽभ्यस्यमानमभ्याससात्मीभावे तदर्थसाक्षात्कारितया पराकाष्ठामासादयति, तदपि स्वकीयमनोरथमात्रम्, क्वचिदभ्याससहस्रेणापि ज्ञानस्य स्वविषयपरिच्छित्तौ विषयान्तरपरिच्छित्तेरनुपपत्तेः । न हि गगनतलोत्प्लवनमभ्यस्यतोऽपि कस्यचित्पुरुषस्य योजनशतसहस्रोत्प्लवनं लोकान्तोत्प्लवनं वा सम्भाव्यते, तस्य दशहस्तान्तरोत्प्लवनमात्रदर्शनात् । तदप्युक्तम् प्राप्त होता है, क्योंकि वह बढ़नेवाला है, जैसे परिमाण, यह कहनेवाला भी निराकृत हो जाता है, क्योंकि प्रत्यक्षादिज्ञानविशेषोंमें कोई एक ज्ञानविशेषके ही परमप्रकर्षकी प्राप्ति सिद्ध होती है और इसलिये ज्ञानविशेषको छोड़कर ज्ञानसामान्यके प्रकर्षकी प्राप्ति अनुपपन्न है। कारण, वह निरतिशय है। तात्पर्य यह कि यदि कहा जाय कि ज्ञानसामान्यको धर्मी किया जाता है, ज्ञानविशेषको नहीं और इसलिये उक्त दोष नहीं है तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानविशेषोंमेंसे किसी ज्ञानविशेषकी ही प्रकर्षप्राप्ति होती है, सभीको नहीं। अतः ज्ञानसामान्यके प्रकर्षकी बात कहना असंगत है, क्योंकि उसमें अतिशय नहीं होता। २६२. और भी जो किसीने कहा है कि-'श्रुतज्ञान अथवा अनुमानज्ञान अभ्यास करते-करते जब पूर्ण अभ्यासको प्राप्त हो जाते हैं तब वे धर्मादि अर्थको साक्षात्कार करने रूपसे चरम सीमा को प्राप्त होते हैं।' वह भी अपने मनकी कल्पना अथवा मनके लड्डू खाना मात्र है, क्योंकि कोई ज्ञान अपने विषयको जान भी ले, लेकिन हजार अभ्यासोंसे भी वह अन्यविषयक नहीं हो सकता है । स्पष्ट है कि यदि कोई आकाशमें ऊपर कूदनेका अभ्यास करे तो वह भी एक लाख योजन अथवा लोकके अन्त तक नहीं कूद सकता है, क्योंकि उसके ज्यादा-से-ज्यादा दश हाथ तक ही कूदना देखा जाता है । इस बातको भी भट्टने कहा है : 1. मु 'परमाणुवत्। 2. द 'साक्षात्कारतया। 3. मु स 'दशा'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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