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________________ २८६ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९६ ६२६३. ननु च कश्चित्प्रज्ञावान्पुरुषः शास्त्रविषयान् सूक्ष्मानत्यर्थानुपलब्धुप्रभरुपलभ्यते, तद्वत्प्रत्यक्षतोऽपि धर्मादिसूक्ष्मानर्थान् साक्षात्कत्त क्षमः किमिति न सम्भाव्यते ? ज्ञानातिशयानां नियमयितुमशक्तेः; इत्यपि न चेतसि विधेयम्; तस्थ स्वजात्यमतिक्रमेणैव नरान्तरातिशयोपपत्तेः । न हि सातिशयं व्याकरणमतिदूरमपि जानानो नक्षत्रग्रहचक्राभिचारादि निर्णयेन ज्योतिःशास्त्रविदो ऽतिशेते, तबुद्धेः शब्दापशब्दयोरेव प्रकर्षोपपत्तेः वैयाकरणान्तरातिशायनस्यैव सम्भवात् । ज्योतिविदोऽपि चन्द्रार्क ग्रहणादिष निर्णयेन प्रकर्ष प्रतिपद्यमानस्यापि न भवत्यादिशब्दसाधत्वज्ञानातिशयेन वैयाकरणातिशायित्व मुत्रेक्षते तथा वेदेतिहासादि कमती बढ़तीरूपसे ही अतिशयवान् दृष्टिगोचर हुये हैं न कि अतीन्द्रिय पदार्थों को देखने रूपसे ।" [ त० सं० द्वि० भा० ३१६० उ० । २६३. अगर यह कहें कि 'कोई बद्धिमान पुरुष जिस प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म शास्त्रीय विषयों को उपलब्ध करने ( जानने )में समर्थ देखा जाता है उसी प्रकार प्रत्यक्षसे भी कोई धर्मादि सूक्ष्म पदार्थोंको साक्षात्कार करने में समथं क्यों सम्भव नहीं है ? क्यों के ज्ञानके अतिशयोंका नियमन नहीं किया जा सकता है-अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान इतना हो होता है इससे अधिक हो ही नहीं सकता!' तो यह विचार भी चित्तमें नहीं लाना चाहिये, क्योंकि उसके अपनी जातिका उल्लंघन न करके ही दूसरे 'पुरुषकी अपेक्षासे अतिशय पाया जाता है। स्पष्ट है कि व्याकरणका बहत अधिक प्रकृष्ट ज्ञान रखता हुआ भी वैयाकरण नक्षत्र और ग्रहसमहकी गति आदिके निर्णयसे ज्योतिषशास्त्रके वेत्ताओंको प्रभावित नहीं करता, क्योंकि उसकी बुद्धि साधु शब्द और असाधु शब्दों में हो प्रकर्षको प्राप्त होती है और इसलिये वह दूसरे वैयाकरणोंको ही प्रभावित कर सकता है। तथा ज्योतिषशास्त्रके वेत्ता भी चन्द्र, सूर्यके ग्रहण आदिमें निर्णयद्वारा प्रकर्षको प्राप्त होते हुए भी "भवति' ( होता है ) आदि शब्दोंके साधुपने और असाधुपनेके प्रकृष्ट ज्ञानसे वैयाकरणको चमत्कारित (प्रभावित ) नहीं 1. मुक 'निरतिशयोपपत्तेः', मुब 'सातिशयोपपत्तेः । 2. द 'विजानानो'। 3. म 'चक्रातिचारादि' स 'चक्रचारादि' । 4. द विदामति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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