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कारिका ९६ ]
२८७
ज्ञानातिशयवतोऽपि कस्यचिन्न स्वर्गदेवताधर्माधर्मसाक्षात्करण 'मुपपद्यते ।
एतदप्यभ्यधायि -
" एकशास्त्रपरिज्ञाने दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥ ज्ञात्वा व्याकरणं दूरं बुद्धिः सव्दापशब्दयोः । प्रकृष्यते न नक्षत्रतिथिग्रहणनिर्णये ॥
अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
ज्योतिर्विच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्कग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥
तथा
न
[ तत्त्वसं० द्वि० भा० ३१६५ उद्धृत ]
[ तत्त्वसं० द्वि० भा० ३१६६ उद्धृत ] वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । स्वर्गदेवताऽपूर्व-प्रत्यक्षीकरणे
क्षमः ।"
[ तत्त्वसं० द्वि० भा० ३१६७ उद्धृत ]
$ २६४. एतेन यदुक्तं सर्वज्ञवादिना - 'ज्ञानं क्वचित्परां काष्ठां प्रतिपद्यते, प्रकृष्यमाणत्वात् वद्यत्प्रकृष्यमाणं तत्तत्क्वचित्परां काष्ठां प्रति
करते । तथा वेद, इतिहास आदिके चमत्कृत ज्ञानवाला भी कोई स्वर्ग, देवता, धर्म, अधर्मका साक्षात्करण नहीं कर सकता है। इस बातको भी भट्ट कहा है
:
" एक शास्त्र के ज्ञानमें ही बड़ा अतिशय देखा जाता है पर दूसरे शास्त्रका ज्ञान उससे ही प्राप्त नहीं होता ।" [
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" बहुत अधिक व्याकरणको जानकर भी बुद्धि साधु और असाधु शब्दों में ही प्रकर्षको प्राप्त होती है, नक्षत्र, तिथि और ग्रहणके बतलाने अथवा निश्चय करनेमें नहीं ।" [ त० सं० ३१६५ उ० ]
"और ज्योतिषशास्त्रका विद्वान् चन्द्र, सूर्यके ग्रहण आदिमें प्रकर्षको प्राप्त होता हुआ भी 'भवति' आदि शब्दोंकी साधुताको नहीं जान सकता ।" [ त० सं० ३१६६ उ० ]
" तथा वेद, इतिहास आदिका विशिष्ट ज्ञान रखनेवाला भी स्वर्ग, देवता, अपूर्व ( धर्म-अधर्म ) के प्रत्यक्ष करने में समर्थ नहीं है ।"
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[ त० सं० ३१६७ उ० ] $ २६४. इस विवेचनसे, जो सर्वज्ञवादीने कहा है कि- 'ज्ञान किसी आत्मविशेषमें चरम सीमाको प्राप्त होता है, क्योंकि बढ़नेवाला है । जो
1. ब ' साक्षात्करणसामर्थ्यमुप' |
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