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कारिका ८६] परमपुरुष-परीक्षा
२६३ प्रतीयते । तद्वदकर्मकस्य धातोः कर्तु स्थक्रियामात्रार्थत्वात्, परमार्थतः कर्मस्थक्रियाऽसम्भवात्कर्तृस्था क्रिया कर्मण्युपचर्यते ।
२३९. ननु च सति मुख्ये स्वयं प्रतिभासने कस्यचित्प्रमाणतः सिद्ध परत्र तद्विषये तदुपचारकल्पना युक्ता, यथाऽग्नौ दाहपाकाद्यर्थक्रियाकारिणि तद्धर्मदर्शनान्माणवके तदुपचारकल्पना 'अग्निर्माणवकः' इति । न च किञ्चित्संवेदनं स्वयं प्रतिभासमानं सिद्धम्, संवेदनान्तरसंवेद्यत्वात्संवेदनस्य क्वचिदवस्थानाभावात्। सुदूरमपि गत्वा कस्यचिसंवेदनस्य स्वयं प्रतिभासमानस्यानभ्युपगमात् कथं तद्धर्मस्योपचारस्तद्विषये घटतेति कश्चितः सोऽपि ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादिनमुपालभतां परोक्षज्ञानवादिनं वा।
$ २४०. ननु च परोक्षज्ञानवादी भट्टस्तावन्नोपलम्भाहः स्वयं प्रतिभासमानस्यात्मनस्तेनाभ्युपमात्, तद्धर्मस्य प्रतिभासनस्य विषयेषूप. 'भात पकता ( बनता ) है' यहाँ पकना-क्रिया पकानेवाले और पकनेवाले दोनोंमें स्थित प्रतीत होती है। इसी प्रकार अकर्मक धातुका कर्तामें स्थित क्रियामात्र हो अर्थ है। वास्तवमें वहां कर्मस्थ क्रियाका अभाव है और इसलिये कर्तामें स्थित क्रिया कर्ममें उपचार मानी जाती है।
$ २३२. वेदान्ती-किसी ज्ञानके प्रमाणसे मुख्य स्वयं प्रतिभासन सिद्ध होनेपर ही अन्यत्र ज्ञानके विषयभूत पदार्थमें प्रतिभासनके उपचार की कल्पना करना युक्त है । जैसे, जलाना, पकाना आदि अर्थक्रिया करनेवाली अग्निमें अग्निके जलाना आदि धर्मको देखकर बच्चेमें उस धमके उपचारकी कल्पना की जाती है कि 'बच्चा अग्नि है। अर्थात् अग्नि हो रहा है। लेकिन कोई ज्ञान स्वयं प्रतिभासमान सिद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे ज्ञानसे ज्ञान जाना जाता है और इसलिये कहीं अवस्थान नहीं है। बहुत दूर जाकरके भी किसो ज्ञानको आपने स्वयं प्रतिभासमान स्वीकार नहीं किया है । ऐसी हालतमें ज्ञानके धर्मका उसके विषयमें कैसे उपचार बन सकता है ? ___ जैन-आप यह दोष तो उन्हें दें जो ज्ञानका दूसरे ज्ञानसे वेदन मानते हैं अथवा ज्ञानको परोक्ष मानते हैं । अर्थात् ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादी नैयायिक तथा वैशेषिक और परोक्षज्ञानवादी भाट्ट तथा प्रभाकर ही दोषयोग्य हैं। हम नहीं, क्योंकि ज्ञानको हम स्वसंवेदी ही मानते हैं, अस्वसंवेदी नहीं । भाट्ट-हम परोक्षज्ञानवादी तो दोषयोग्य नहीं हैं, क्योंकि हमने 1. मु स 'प्रतिभासमाने' । 2. मुक स 'प्रतिभासमानस्य', द प्रतौ च त्रुटितो पाठो विद्यते ।
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