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________________ २६४ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ८६ चारघटनात्। घटः प्रतिभासते, पटादयः प्रतिभासन्त इति घटपटादिप्रतिभासनान्यथानुपपत्त्या च करणभूतस्य परोक्षस्यापि ज्ञानस्य प्रतिपतेरविरोधात्, रूपप्रतिभासनाच्चक्षुःप्रतिपत्तिवत् । तथा करणज्ञानमात्मानं चाप्रत्यक्ष वदन् 'प्रभाकरोऽपि नोपालम्भमर्हति फलज्ञानस्य स्वयं प्रतिभासमानस्य तेन प्रतिज्ञानात् तद्धर्मस्य विषयेषपचारस्य सिद्धेः । फलज्ञानं च कर्तृ करणाभ्यां विना नोपपद्यत इति तदेव कर्तारं करणज्ञानं चाप्रत्यक्षमपि व्यवस्थापयति, यथा रूपप्रतिभासनक्रिया फलरूपा चक्षु. मन्तं चक्षुश्च प्रत्यापयतीति केचिन्मन्यन्ते, तेषामपि भट्टमतानुसारिणामात्मनः स्वरूपपरिच्छेदेऽर्थपरिच्छेदस्यापि सिद्धेः स्वार्थपरिच्छेदकपुरुषप्रसिद्धौ ततोऽन्यस्य परोक्षज्ञानस्य कल्पना न किञ्चिदर्थं पुष्णाति । प्रभाकरमतानुसारिणां फलज्ञानस्य स्वार्थपरिच्छित्तिरूपस्य प्रसिद्धौ करणज्ञानकल्पनावत् । कर्तुः करणमन्तरेण क्रियायां व्यापारानु स्वयं प्रतिभासमान आत्माको स्वीकार किया है। अतः उसके धर्म प्रतिभासनका विषयोंमें उपचार बन जाता है। और 'घट प्रतिभासित होता है, पटादिक प्रतिभासमान होते हैं यह घटपटादिकका प्रतिभासन ज्ञानके बिना नहीं हो सकता है, अतएव करणभूत परोक्ष भी ज्ञानकी प्रतिपत्ति विरुद्ध नहीं है-वह हो जाती है, जैसे रूपज्ञानसे चक्षुका ज्ञान । प्राभाकर- हम भी दोषयोग्य नहीं हैं क्योंकि यद्यपि हम करणज्ञानको और आत्माको परोक्ष मानते हैं लेकिन स्वयं प्रतिभासमान फलज्ञान हमने स्वीकार किया है और इसलिये उसके धर्मप्रतिभासनका उपचार उपपन्न हो जाता है। और चंकि फलज्ञान कर्ता तथा करणज्ञानके बिना बन नहीं सकता है इसलिये वह फलज्ञान ही परोक्ष कर्ता और करणज्ञानको व्यवस्थापित करता है, जैसे रूपकी प्रतिभासनक्रिया, जो कि फलरूप है, चक्षुवालेका और चक्षुका ज्ञान कराती है। __ जैन-आप दोनोंको मान्यताएँ भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि आप भाट्ट लोग जत्र आत्माको स्वरूपपरिच्छेदक स्वोकार करते हैं तो वही अर्थपरिच्छेदक भी सिद्ध हो जाता है और इस तरह आत्माके स्वार्थपरिच्छेदक सिद्ध हो जानेपर उससे भिन्न परोक्षज्ञानकी मान्यता कोई प्रयोजन पुष्ट नहीं करती अर्थात् उससे कोई मतलब सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार प्राभाकरोंका फलज्ञान जब स्वार्थपरिच्छेदक प्रसिद्ध है तो उससे भिन्न परोक्ष करणज्ञानकी कल्पना करना निरर्थक है। 1. मु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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