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________________ २६२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८६ २३८. किञ्च, तत् प्रतिभासमात्रं सामान्यरूपं द्रव्यरूपंवा ? प्रथमपक्षे सत्तामात्रमेव स्यात्, तस्यैव परसामान्यरूपतया प्रतिष्ठानात् । तस्य स्वयं प्रतिभासमानत्त्वे प्रतिभासमात्रमेव तत्त्वम्, अन्यथा तदव्यव. स्थितेरिति चेत्, न, सत्सदित्यन्वयज्ञानविषयत्वात्सत्तासामान्यस्य व्यवस्थितेः स्वयं प्रतिभासमानत्वासिद्धेः। 'सत्ता प्रतिभासते' इति तु विषये विषयिधर्मस्योपचारात् । प्रतिभासनं हि विषयिणो ज्ञानस्य धर्मः स विषये सत्तासामान्येऽध्यारोप्यते । तदध्यारोपनिमित्तं तु प्रतिभासनक्रियाधिकरणत्वम । यथैव हि 'संवित प्रतिभासते' इति कर्तस्था प्रतिभासनक्रिया तथा तद्विषयस्थाऽप्युपचयंते सकर्मकस्य धातोः कत कर्मस्थक्रियार्थत्वात्, यथौदनं पचतीति पचनक्रिया पाचकस्था पच्यमानस्था च और भी हम पूछते हैं कि प्रतिभाससामान्य सामान्यरूप है अथवा द्रव्यरूप ? यदि पहला पक्ष स्वीकार करें तो वह सत्तारूप ही है, क्योंकि प्रतिभाससामान्य ही परसामान्यरूपसे व्यवस्थित है। तात्पर्य यह प्रतिभाससामान्य हो सत्ता या परसामान्यरूप है और सामान्य बिना विशेषोंके बन नहीं सकता। अतएव द्वैतका प्रसङ्ग प्राप्त होता है। वेदान्ती-यदि वह सत्तासामान्य स्वयं प्रतिभासमान है तो प्रतिभासमात्र ही तत्त्व है। और अगर स्वयं प्रतिभासमान नहीं है तो उसकी व्यवस्था नहीं हो सकती है ? जैन-नहीं, 'सत् सत्' इस प्रकारके अन्वयज्ञानका जो विषय है वह सत्तासामान्य है। अतएव सत्तासामान्यकी अन्वयज्ञानसे व्यवस्था होनेसे वह स्वयं प्रतिभासमान असिद्ध है। 'सत्ता प्रतिभासित होती है' ऐसा ज्ञान तो विषयमें विषयोधर्मका उपचार होनेसे होता है । स्पष्ट है कि विषयी ज्ञान है और उसका धर्म प्रतिभासन है वह विषयसत्तासामान्यमें अध्यारोपित किया जाता है। और उस अध्यारोपमें निमित्तकारण प्रतिभासनक्रियाका अधिकरणपना है। तात्पर्य यह कि चूंकि प्रतिभासनक्रियाका अधिकरण सत्तासामान्य है, इसलिये उसमें ज्ञानके धर्म प्रातभासनका अध्यारोप होता है। प्रकट है कि जिस प्रकार 'ज्ञान प्रतिभासित होता है' यहाँ प्रतिभासन क्रिया कर्तृस्थ ( कर्तामें स्थित ) है। उसी प्रकार वह उपचारसे ज्ञानके विषयभूत पदार्थमें स्थित भी मानो जाती है, क्योंकि सकर्मक धातुका कर्ता और कर्म दोनोंमें स्थित क्रिया अर्थ होता है । जैसे, 1. द 'विशेषरूपम्'। 2. मुस 'पाच्यमानस्था' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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