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कारिका ८६] परमपुरुष-परोक्षा हि चिद्रपं परमब्रह्मोक्तम, तच्च यथा पारमार्थिक देशकालाकाराणां भेदेऽपि व्यभिचाराभावात् । तत्प्रतिभासविशेषाणामेव व्यभिचारादव्यभिचारित्वलक्षणत्वात्तस्येति । तच्च विचार्यते
$ २३६ यदेतत्प्रतिभासमात्रं तत् सकलप्रतिभासविशेषरहितं तत्सहितं वा स्यात् ? प्रथमपक्षे तदसिद्धमेव, सकलप्रतिभासविशेषरहितस्य प्रतिभासमात्रस्यानुभवाभावात, केनचित्प्रतिभासविशेषेण सहितस्यैव तस्य प्रतिभासनात् । क्वचित्प्रतिभासविशेषस्याभावेऽपि पुनरन्यत्र भावात, कदाचिदभावेऽपि चान्यदा सद्भावात्, केनचिदाकारविशेषण तदसम्भवेऽपि चाकारान्तरेण सम्भवात्, देशकालाकारविशेषापेक्षत्वात्तप्रतिभासविशेषाणाम्, तथाव्यभिचाराभावादव्यभिचारित्वसिद्धेस्तत्त्वलक्षणानतिक्रमान्न तत्त्वबहिर्भावो युक्तः । तथा हि-यद्यथैवाव्यभिचारि तत्तथैव तत्त्वम्, यथा प्रतिभासमात्रं प्रतिभासमात्रतयैवाव्यभिकि आप लोग प्रतिभाससामान्य चैतन्यरूप परमब्रह्मको कहते हैं और उसे पारमार्थिक मानते हैं, क्योंकि देश, काल और आकारका भेद होनेपर भी व्यभिचार अर्थात् प्रतिभाससामान्यका अभाव नहीं होता। केवल उसके प्रतिभासविशेषोंका हो व्यभिचार ( अभाव ) होता है। अतएव व्यभिचार न होना पारमार्थिकका लक्षण है, इसपर हमारा निम्न प्रकार विचार है
२३६. बतलाइये, जो यह प्रतिभाससामान्य है वह समस्त प्रतिभासविशेषोंसे रहित है अथवा उनसे सहित है ? पहला पक्ष तो असिद्ध है, क्योंकि समस्त प्रतिभासविशेषोंसे रहित प्रतिभाससामान्यका अनुभव नहीं होता, किसी प्रतिभासविशेषसे सहित ही प्रतिभाससामान्यका अनुभव होता है। कहीं प्रतिभासविशेषका अभाव होनेपर भी दूसरी जगह उसका सद्भाव होता है और किसी कालमें अभाव होनेपर भी अन्य कालमें वह मौजूद रहता है तथा किसी आकारविशेषसे उसका अभाव रहनेपर भी अन्य दूसरे आकारसे वह विद्यमान रहता है। आशय यह कि प्रतिभाससामान्यके जो प्रतिभासविशेष हैं वे देशविशेष, कालविशेष और आकारविशेषकी अपेक्षासे होते हैं और इसलिये वे देशविशेषादिके व्यभिचारी न होनेसे अव्यभिचारी सिद्ध हैं । अतः उनके तत्त्व (पारमार्थिकत्व ) का लक्षण ( अव्यभिचारित्व ) पाया जानेसे उनको तत्त्वसे बाहर करना युक्त नहीं है। हम प्रमाणित करते हैं कि-जो जिस रूपसे अन्यभिचारी है वह
1. व 'विश्वरूपं परमब्रह्मान्तस्तत्त्वं' । 2. द 'तद्'।
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