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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८६ चारि तथैव तत्वम्, अनियतदेशकालाकारतयैवाव्यभिचारी च प्रतिभासविशेष इति प्रतिभासमात्रवत्प्रतिभासविशेषस्यापि वस्तुत्वसिद्धिः । न हि यो यद्दे शतया प्रतिभासविशेषः स तद्देशतां व्यभिचरति, अन्यथा भ्रान्तत्वप्रसङ्गात्, शाखादेशतया चन्द्रप्रतिभासवत् । नापि यो यत्कालतया प्रतिभासविशेषः स तत्कालतां व्यभिचरति, तद्वयभिचारिणोऽसत्यत्वव्यवस्थानात्, निशि मध्यंदिनतया स्वप्नप्रतिभासविशेषवत् । नापि यो यदाकारतया प्रतिभासविशेषः स तदाकारतां विसंवदति, त द्वसंवादिनो मिथ्याज्ञानत्वसिद्धेः, कामलाद्युपहतचक्षुषः शुक्ले शङ्ख पोताकारताप्रतिभासविशेषवत् । न च वित्तथैर्देशकालाकारव्यभिचारिभिः प्रतिभासविशेषैः सदृशा एव देशकालाकाराव्यभिचारिणः प्रतिभासविशेषाः प्रतिलक्षयितुयुज्यन्ते, यत इदं वेदान्तवादिनां वचनं शोभेत
उसी रूपसे तत्त्व-पारमाथिक है, जैसे प्रतिभासमामान्य प्रतिभासमानरूपसे ही अव्यभिचारी है और इसलिये वह उसोरूपसे तत्त्व है और अनियत देश, अनियत काल तथा अनियत आकाररूपसे अव्यभिचारी प्रतिभासविशेष है, इस कारण वह उसीरूपसे तत्त्व है इस तरह प्रतिभाससामान्यकी तरह प्रतिभासविशेष भी वस्तु ( पारमार्थिक ) सिद्ध है। स्पष्ट है कि जो जिस देशकी अपेक्षा प्रतिभासविशेष है वह उस देशसे व्यभिचारी नहीं होता, अन्यथा वह भ्रान्त कहा जायगा, जैसे शाखादेशसे होनेवाला चन्द्रमाका प्रतिभास । तथा जो जिस कालसे प्रतिभासविशेष है वह उस कालसे व्यभिचारी नहीं होता, क्योंकि जो उससे व्यभिचारी होता है वह असत्य व्यवस्थापित किया गया है। जैसे रात्रिमें मध्यदिनदोपहररूपसे होनेवाला स्वप्नप्रतिभास । तथा जो जिस आकारसे प्रतिभास विशेष है वह उस आकारसे विसंवादी नहीं होता, क्योंकि जो उससे विसंवादी होता है उसे मिथ्याज्ञान सिद्ध किया गया है। जैसे पीलियारोगविशिष्ट आँखोंवालेको सफेद शंखमें पीताकर (पीले आकार ) रूपसे होनेवाला प्रतिभासविशेष। और इसलिये देश, काल और आकारसे व्यभिचारी मिथ्याप्रतिभासविशेषोंके समान हो देश, काल और आकारसे अव्यभिचारी सत्य प्रतिभासविशेषोंको समझना युक्त नहीं है, जिससे वेदान्तियोंका यह कहना शोभा देता–सङ्गत प्रतीत होता
1. मुद्ध:'। 2. द 'अन्यथा' इति पाठो नास्ति ।
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