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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८४ वक्षामन्तरेणाऽपि विधूतकल्पनाजालस्य बुद्धस्य मोक्षमार्गोपदेशिन्या वाचो धर्मविशेषादेव प्रवृत्तेः। स एव निर्वाणमार्गस्य प्रतिपादकः समवतिष्ठते विश्वतत्त्वज्ञत्वात् कात्स्य॑तो वितृष्णत्वाच्चेति केचिदाचक्षते सौत्रान्तिकमतानुसारिणः सौगताः।
[सौत्रान्तिकमतनिराकरणे जैनानामुत्तरपक्षः ] २०५. तेषां तत्त्वव्यवस्थामेव न सम्भावयामः । कि पूनविश्वतत्त्वज्ञः सुगतः ? स च निर्वाणमार्गस्य प्रतिपादक इत्यसम्भाव्यमानं प्रमाणविरुद्ध प्रतिपद्येमहि ।
$ २०६. तथा हि-प्रतिक्षणविनश्वरा बहिराः परमाणवः प्रत्यक्षतो नानुभूता नानुभूयन्ते, स्थिरस्थूलसाधारणाकारस्य प्रत्यक्षबुद्धौ घटादेरर्थस्य प्रतिभासनात् । यदि पुनरत्यासन्नाऽसंसृष्टरूपाः परमाणवः प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासन्ते, प्रत्यक्षपृष्ठभाविनी तु कल्पना संवृत्तिः स्थिरस्थूलसाधारणापदेशका कोई विरोध नहीं है-वह बन जाता है। यही कारण है कि समस्त कल्पनाओंसे रहित बुद्ध के मोक्षमार्गका उपदेश करनेवाली वाणीकी धर्मविशेषसे ही प्रवृत्ति होती है। अतः सुगत ही मोक्षमार्गका प्रतिपादक सम्यक् प्रकारसे व्यवस्थित होता है क्योंकि वह विश्वतत्त्वज्ञ है और सम्पूर्णतः वितृष्ण्य-तृष्णारहित है। इस प्रकार हम सौत्रान्त्रिकोंका कथन है ?
$ २०५. जैन--आपकी तत्त्वव्यवस्थाको ही हम सम्भव नहीं मानते हैं, फिर सुगत विश्वतत्त्वज्ञ कैसे हो सकता है ? और ऐसी दशामें वह मोक्षमार्गका प्रतिपादक है' इस असम्भव बातको भी हम प्रमाणविरुद्ध समझते हैं। तात्पर्य यह कि 'मूलाभावे कुतो शाखा' इस न्यायानुसार जब आपके तत्त्वोंकी व्यवस्था ही नहीं बनती है तो उन तत्त्वोंका ज्ञाता और मोक्षमार्गका प्रतिपादक सुगत है, यह कहना सर्वथा असंगत और प्रमाणविरुद्ध है। वह इस प्रकारसे है
$ २०६. आपके द्वारा माने गये प्रतिक्षणविनाशी बहिरर्थपरमाणु प्रत्यक्षसे न तो कभी अनुभूत हुए हैं और न अनुभवमें आते हैं, स्थिर, स्थल और साधारण आकारवाले घटादिक पदार्थोंका हो प्रत्यक्षज्ञानमें प्रतिभास होता है।
सौत्रान्तिक–अत्यन्त निकटवर्ती और परस्पर संसर्गसे रहित पर माणु प्रत्यक्षज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं। लेकिन प्रत्यक्षके पीछे उत्पन्न होनेवाली कल्पना, जो कि संवृत्ति है-अवास्तविक है, स्थिर, स्थूल और
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