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________________ कारिका ८४] सुगत-परीक्षा २२९ चित्तसन्तानस्य सुगतत्ववर्णनात्। तथा सुष्ठु गतः सुगत इति पुनरनावृत्यागत इत्युच्यते, सुशब्दस्य पुनरनावृत्यर्थत्वात्, सुनष्टज्वरवत् । पुनरविद्यातष्णाक्रान्तचित्तसन्तानावृत्तेरभावात्, निरास्त्रवचित्तसन्तानसद्भावाच्च । "तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा।" [प्रमाणवा० २-१९९] इति वचनात् । कृपा हि त्रिविधा-सत्त्वालम्बना पत्रकलत्रादिष, धर्मालम्बना संघादिषु, निरालम्बना 'शिलासम्पुटसन्दष्टमण्डूकोद्धरणादिषु । तत्र महतो निरालम्बना कृपा सुगतानां सत्त्वधर्मानपेक्षत्वादिति ते तिष्ठन्त्येव न कदाचिन्निर्वान्ति धर्मदेशनया जगदुपकारनिरतत्वाज्जगतइचानन्तत्वात् । “बुद्धो भवेयं जगते हिताय' [ अद्वयवज्रसं० पृ० ५] इति भावनया बुद्धत्वसंवर्तकस्य धर्मविशेषस्योत्पत्तेधर्मदेशनाविरोधाभावाद्वि सन्तानको सुगत वर्णित किया गया है। तथा, जो अच्छी तरह चला गया (सुष्ठु गतः इति )-फिर लौटकर नहीं आता उसे सुगत कहते हैं। यहाँ 'सु' शब्दका अनावृत्ति-लौटकर न आना-अर्थ है, जैसे सुनष्ट ज्वर अर्थात् अच्छी तरह चला गया-फिर लौटकर न आनेवाला ज्वर । चूंकि जो सुगतत्वको प्राप्त हो चुके हैं उन्हें पुनः अविद्या और तृष्णासे व्याप्त चित्तसन्तान प्राप्त नहीं होता और सदैव निरास्रव चित्तसन्तान प्राप्त रहता है। कहा भो है-"सुगतों की महान् कृपाएँ दूसरों के लिये बनी ही रहती हैं-सदेव ठहरो रहती हैं।" [ प्रमाणवार्तिक २।११९ ] । विदित है कि कृपाएँ तीन प्रकारकी हैं-एक तो सत्त्वालम्बना-जीवमात्रको लेकर होनेवाली, जो पत्र, स्त्री वगैरहमें की जाती है, दूसरो धर्मालम्बनाधर्मकी अपेक्षासे होनेवाली, जो श्रमणसंघ आदिमें की जाती है और तीसरी निरालम्बना-सत्त्व-धर्मादि किसीकी भी अपेक्षासे न होनेवाली अर्थात् रागनिरपेक्ष, जो पत्थरके टुकड़ेसे दबे या साँपसे डसे मेढकका उद्धार करने आदिमें की जाती है। इनमें सबसे बड़ी कृपा सूगतोंकी निरालम्बना कृपा है क्योंकि उसमें सत्त्व और धर्म दोनों ही की अपेक्षा नहीं होती है। और इपलिये वे सदैव स्थिर रहती हैं। कभी उनका नाश नहीं होता, क्योंकि सभी सुगत धर्मोपदेशद्वारा जगतका उपकार करने में सतत तत्पर रहते हैं और जगत् ( लोक ) अनन्त है-संसारी प्राणी अनन्त संख्यक हैं। अत एव "मैं जगत्का हित करनेके लिये बुद्ध होऊँ" [ ] इस भावनासे सुगतोंको बुद्धत्व ( तीर्थ) प्रवर्तक धर्मविशेषका लाभ होता है और इसलिये उनके विवक्षाके अभावमें भी धर्मो 1. मु स 'शिला' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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