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आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका
“अर्थस्यासम्भवेऽभावात्प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ॥" [ ] इति । २०४ तदेवं श्रुतानुमानभावनाज्ञानात्प्रकर्ष पर्यन्तप्राप्ताच्चतुरार्यसत्यज्ञानस्य स्पष्टतमस्योत्पत्तेरविरोधात्सुगतस्य विश्वतत्त्वज्ञता प्रसिद्धैव, परमवैतृष्ण्यवत् । सम्पूर्णं गतः सुगत इति निर्वचनात्, सुपूर्ण कलशवत्, सुशब्दस्य सम्पूर्ण वाचित्वात् सम्पूर्ण हि साक्षाच्चतुरार्यसत्यज्ञानं सम्प्राप्तः सुगत इष्यते । तथा शोभनं गतः सुगत इति सुशब्दस्य शोभनार्थत्वात्सुरूपकन्यावत् निरुच्यते । शोभनो ह्यविद्यातृष्णाशून्यो ज्ञानसन्तानः, तस्याशोभनाभ्यामविद्या तृष्णाभ्यां व्यावृत्तत्वात्, [तं] सम्प्राप्तः सुगत इति, निरास्रव
"अर्थके अभाव में न होनेसे प्रत्यक्ष में भी प्रमाणता है और साध्यके सद्भावमें होनेवाला तथा साध्यके असद्भावमें न होनेवाला अर्थात् साध्याविनाभावी त्रिरूपलिङ्ग - प्रतिबद्धस्वभाववाला साधन अनुमानमें कारण है -- उसके होनेपर हो अनुमान उत्पन्न होता है और उसके न होनेपर अनुमान उत्पन्न नहीं होता है और इसलिये उसमें भी प्रमाणता है ! अतएव प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों समान हैं । तात्पर्य यह कि प्रत्यक्षकी तरह अनुमान भी त्रिरूप लिङ्गात्मक अर्थ से उत्पन्न होता है -- उसके अभाव में नहीं होता है ।" [ ]
[ कारिका ८४
$ २०४. इसप्रकार चरम प्रकर्षको प्राप्त -- श्रुतमयो और चिन्तामयी भावनाज्ञानसे स्पष्टतम -- अत्यन्त विशद चार आर्यसत्योंका ज्ञान उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है और इसलिये सुगतके सर्वज्ञता प्रसिद्ध ही है, जैसे परम वैतृष्ण्य भाव अर्थात् तृष्णाका सर्वथा अभाव । क्योंकि जो सम्यक् प्रकारसे पूर्णताको प्राप्त है वह सुगत है, ऐसो सुगत शब्दकी व्युत्पत्ति है, जैसे सुपूर्ण कलश । यहाँ 'सु' शब्द सम्पूर्ण अर्थका वाची है । स्पष्ट है कि जो सम्पूर्ण चार आर्यसत्योंके साक्षात् ज्ञानको प्राप्त हो जाता है उसे सुगत कहा जाता है । तथा जो शोभन - शोभा को प्राप्त है उसे सुगत कहते हैं, ऐसी भो सुगत शब्दकी व्युत्पत्ति है, क्योंकि सुरूप कन्या ( शोभायुक्त रूपवाली बालिका ) की तरह 'सु' शब्द यहाँ शोभनार्थक है । यथार्थ में अविद्या और तृष्णासे रहित ज्ञानसन्तानको शोभन कहा जाता है और सुगत अशोभन अविद्या तथा तृष्णासे रहित है, इसलिये उस शोभन ज्ञानसन्तानको जो प्राप्त है वह सुगत है, क्योंकि निरास्रव चित्त
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द 'श्रुतानुमानभाव नाप्रकर्षे पर्यन्तप्राप्ते' । 2. मु 'सुकलशवत्', स 'संपूर्ण कलशवत्' ।
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