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________________ कारिका ८४ ] सुगत- परीक्षा २२७ परार्थानुमानं त्रिरूपलिङ्गप्रकाशकं वचनम् चिन्ता च स्वार्थानुमानं साध्याविनाभावित्रिरूपलिङ्गज्ञानम्, तस्य विषयो द्वेधा प्राप्यश्चालम्बनीयश्च । तत्रालम्ब्य मानस्य साध्यसामान्यस्य तद्विषयस्यावस्तुत्वादतत्त्व ' विषयत्वेsपि प्राप्यस्वलक्षणापेक्षया तत्त्वविषयत्वं व्यवस्थाप्यते, " वस्तुविषयं प्रामाण्यं द्वयोरपि प्रत्यक्षानुमानयोः " [ ] इति वचनात् । यथैव हि प्रत्यक्षादर्थं परिच्छिद्य प्रवर्त्तमानोऽर्थक्रियायां न विसंवाद्यत इत्यर्थक्रियाकारि स्वलक्षणवस्तुविषयं प्रत्यक्षं प्रतीयते तथा परार्थानुमानात्स्वार्थानुमानाच्चार्थं परिच्छिद्य प्रवर्त्तमानोऽर्थक्रियायां न विसंवाद्यत इत्यर्थक्रियाकारि चतुरार्य सत्यवस्तुविषयमनुमानमास्थीयत इत्युभयोः प्राप्यवस्तुविषयं प्रामाण्यं सिद्धम्, प्रत्यक्षस्येवानुमानस्यार्थासम्भवे सम्भवाभावसाधनात् । तदुक्तम्- -- 33 उससे तत्त्व प्राप्य है | प्रकट है कि परमार्थानुमानरूप त्रिरूपलिङ्गप्रकाशक वचनको श्रुत कहते हैं और स्वार्थानुमानरूप साध्यके अविनाभावी ( साध्यके होनेपर होनेवाला और साध्यके अभाव में न होनेवाला ) त्रिरूपलिङ्गके ज्ञानको चिन्ता कहते हैं । इन दोनों भावनाज्ञानोंका विषय दो प्रकारका है- - एक प्राप्य और दूसरा आलम्बनीय । उनमें जो आलम्बन होनेवाला उसका विषयभूत साध्यसामान्य है - वह अवस्तु है, इसलिये आलम्बनीय विषयकी अपेक्षा से वह अतत्त्वविषयक होनेपर भी प्राप्यस्वलक्षणकी अपेक्षा से वस्तुविषयक व्यवस्थापित किया जाता है, क्योंकि "प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों ही में वस्तुविषयक प्रामाण्य है अर्थात् प्रत्यक्ष की तरह अनुपान में भो वस्तुविषयक प्रमाणता है । [ ] ऐसा कहा गया है । निःसन्देह जिसप्रकार प्रत्यक्षसे अर्थको जानकर प्रवृत्त हुए पुरुषको अर्थक्रियामें कोई विसंवाद नहीं होता और इसलिये उसका वह प्रत्यक्षज्ञान अर्थक्रियाकारी एवं स्वलक्षणरूप वस्तुको विषय करनेवाला प्रतीत होता है उसीप्रकार परार्थानुमान और स्वार्थानुमानसे अर्थको जानकर प्रवृत्त होनेवाले पुरुषको अर्थक्रियामें कोई विसंवाद नहीं होता और इसलिये उसका वह अनुमानज्ञान अर्थक्रियाकारी एवं चार आर्यसत्य ( दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ) रूप वस्तुको विषय करनेवाला माना जाता है। इसप्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंमें प्राप्य वस्तुको अपेक्षा प्रामाण्य सिद्ध है, क्योंकि प्रत्यक्षकी तरह अनुमान भी अर्थके अभाव में नहीं होता है । कहा भी है- 1. द 'वस्तुत्वादेकत्व विषय' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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