SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८४ प्यभूतार्थविषयतया तत्त्वविषयतया तत्त्वविषयत्वाभावात् । तथा चाभ्यधायि "काम-शोक-भयोन्माद चौर-स्वप्नाद्य पप्लुताः । अभूतामपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ॥" [ प्रमाणवा० ३-२८२ ] इति । [सौत्रान्तिकानां पूर्वपक्षः] २०३. ननु च कामादिभावनाज्ञानादभूतानामपि कामिन्यादीनां पुरतोऽवस्थितानामिव स्पष्टं साक्षाद्दर्शनमुपलभ्यते किमङ्ग पुनः श्रुतानुमानभावनाज्ञानात्परमप्रकर्षप्राप्ताच्चतुरार्यसत्यानां परमार्थसतां दुःखसमुदय-निरोध-मार्गाणां योगिनः साक्षाद्दर्शनं न भवतीत्ययमर्थोऽस्य श्लोकस्य सौगतेविवक्षितः, स्पष्टज्ञानस्य भावनाप्रकर्षादुत्पत्तौ कामिन्यादिषु भावनाप्रकर्षस्य स्पष्टज्ञानजनकस्य दृष्टान्ततया प्रतिपादनात् । न च श्रुतानुमानभावताज्ञानमतत्त्वविषयं ततस्तत्त्वस्य प्राप्यत्वात् । श्रुतं हि करनेसे वस्तविषयक नहीं हैं। तात्पर्य यह कि जिनका ज्ञान कामादियक्त है उन्हें कामिनी आदि पदार्थ सामने स्थितकी तरह दिखते हैं और इसलिये उनके ज्ञान अतत्त्व को विषय करने से तत्त्वविषयक नहीं हैं। अतएव कहा है _ 'काम, शोक, भय, उन्माद, चोर और स्वप्नादिसे युक्त पुरुष असत्य अर्थोंको भी सामने स्थितकी तरह देखते हैं।' [प्रमाणवार्तिक ३-२८२ ] २०३. बौद्ध-जब कामादिकके भावनाज्ञानसे असत्यभूत भी कामिनी आदिकोंका सामने स्थितोंकी तरह स्पष्ट साक्षात् प्रत्यक्षज्ञान उपलब्ध होता है तब क्या कारण है कि श्रृतमयी और चिन्तामयी भावनाज्ञानसे, जो परमप्रकर्षको प्राप्त है, दुःख, समुदय (दुःखके कारण) निरोध ( दुःखनिवृत्ति ) और मार्ग ( दुःख निवृत्तिके उपाय ) इन चार परमार्थभूत आर्यसत्योंका योगीको साक्षात् प्रत्यक्षज्ञान नहीं होता ? यह अर्थ उपरोक्त पद्यका हमें विवक्षित है, क्योंकि भावनाके प्रकर्षसे स्पष्ट ज्ञानकी उत्पत्ति सिद्ध करने में स्पष्ट ज्ञानके जनक, कामिनी आदिमें होनेवाले भावनाप्रकर्षको हम दृष्टान्तरूपसे प्रतिपादन करते हैं। दूसरी बात यह है कि श्रुतमयी और चिन्तामयी भावनाज्ञान अवस्तुको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि 1. व मु स प्रतिषु 'चोर' । 2. मु स 'प्रकर्षोत्पत्तौ । 3. मु स तद्विषयस्पष्टज्ञान' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy