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________________ २२१ कारिका ८४] सुगत-परीक्षा विश्वतत्त्वज्ञतापेतत्त्वं सुगतस्य सिद्धमेव । तथा परमार्थतः स्वरूपमात्रा वलम्बित्वात्सर्वविज्ञानानां सुगतज्ञानस्यापि स्वरूपमात्रविषयत्वमेवोररीकर्तव्यम्, तस्य बहिरर्थविषयत्वे "सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्" [ न्यायबिन्दु, पृ. १९ ] इति वचनं विरोधमध्यासीत् , बहिराकारतयोत्पद्यमानत्वात् । सुगतज्ञानस्य बहिरर्थविषयत्वोपचारकल्पनायां न परमार्थतो बहिरर्थविषयं सुगतज्ञानमतः 'तत्त्वतः' इति विशेषणमपि नासिद्धं साधनस्य । नापि विरुद्धम्, विपक्ष एव वृत्तेरभावात् कपिलादी सपक्षेऽपि सद्भावात् । १५८. ननु तत्त्वतो विश्वतत्त्वज्ञतापेतेन मोक्षमार्गस्य प्रतिपादकेन दिग्नागाचार्यादिना साधनस्य व्यभिचार इति चेत्, न; तस्यापि पक्षी उत्तरवर्तीको नहीं और भविष्यत् पदार्थ कार्यके उत्तरकालीन हैं तब वे सुगतज्ञानके कारण कैसे हो सकते हैं ? तथा कारण न होनेकी हालतमें वे सुगतज्ञानके विषय भी कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। अतः सर्वज्ञताका अभाव सुगतके सिद्ध ही है। दूसरी बात यह. है कि समस्त ज्ञानों को परमार्थतः स्वरूपमात्रविषयक होनेसे सुगतज्ञानको भो स्वरूपमात्रविषयक ही स्वीकार करना चाहिये। और इस तरह उसके विश्वतत्त्वज्ञताका अभाव सिद्ध है। यदि उसे बहिरर्थविषयक ( बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाला ) कहा जाय तो "समस्त चित्तों और चैत्तों-- अर्थमात्रग्राही विज्ञानों और विशेष अवस्थाग्राहो सुखादिकोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है" [ न्यायबिंदु पृ० १९ ] इस वचनका विरोध प्राप्त होता है, क्योंकि बाह्य पदार्थाकार रूपसे वह उत्पन्न होगा। तात्पर्य यह कि सुगतज्ञानको बहिरर्थविषयक माननेपर उसका स्वसंवेदन नहीं हो सकता है और इसलिये उक्त न्यायबिन्दुकारके वचनके साथ विरोध आता है। अगर कहा जाय कि उपचारसे सुगतज्ञानको बहिरर्थविषयक मानते हैं तो सुगतज्ञान परमार्थतः बहिरर्थविषयक सिद्ध नहीं होता। अतः 'तत्त्वतः' यह हेतुगत विशेषण भी असिद्ध नहीं है । तथा हेतु विरुद्ध भी नहीं है क्योंकि विपक्ष में वह नहीं रहता है और कपिलादिक सपक्षमें रहता है। १९८. बौद्ध-परमार्थतः सर्वज्ञतासे रहित एवं मोक्षमार्गके प्रतिपादक दिग्नागाचार्यादिके साथ आपका हेतु व्यभिचारी है ? । 1. द 'बहिरर्थसंवेदकत्वात्। मु स 'बहिरर्थविषयत्वे स्वार्थसंवेदकत्वात्' । 2. द म 'सीत' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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