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१८.
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका पद्यपर अपनी अमर कृति आप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र) की रचना की है। इस बातको आ० विद्यानन्दने ग्रन्थके अन्त ( का० १२३-१२४ ) में स्पष्ट
यह पद्य प्रस्तुत ग्रन्थमें कारिका नं० तीनके रूपमें भी स्थित है और उसे ग्रन्थका आधारअंग बनाकर उसीकी व्याख्याके रूपमें यह ग्रन्थ लिखा गया है । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि ग्रन्थकारके दूसरे ग्रन्थ अष्टसहस्रीके मङ्गलपद्य और इसी ग्रन्थके उपान्त्य पद्य 'श्रीमत्तत्त्वार्थ के आधारसे श्रीयुत पण्डित सुखलालजी और न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजीने अपना यह विचार बनाया था कि आचार्य विद्यानन्दने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि स्तोत्रको पूज्यपादाचार्यकी तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तत्त्वार्थवृत्ति अपरनाम सर्वार्थसिद्धिका मङ्गलाचरण बतलाया है और इसलिये वह तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण नहीं है, ( देखो, अकलंकग्रन्थत्रय, प्राक्कथन, पृ० ८ ।, न्याकुमुदचन्द्र, प्राक्कथन, पृ० १७ तथा इसी ग्रन्थकी प्रस्तावना पृ० २५-२६) । उनके इस विचारपर हमने अनेकान्त वर्ष ५, किरण ६-७ और १०-११ में 'तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक दो लेखोंद्वारा विस्तृत चर्चा की थी और विद्यानन्दके ही सुस्पष्ट विभिन्न ग्रन्थोल्लेखोंपरसे यह सिद्ध किया था कि विद्यानन्दने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि स्तोत्रको आ० उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका मलाचरण बतलाया है, पूज्यपादकी तत्त्वार्थवृत्ति अपरनाम सर्वार्थसिद्धिका नहीं। इसे बादको न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजीने अनेकान्त वर्ष ५ किरण ८-९ में स्पष्टतया स्वीकार कर लिया है और यह लिख कर कि 'इस मङ्गलश्लोकको सूत्रकार ( उमास्वाति) कृत लिखनेवाले सर्वप्रथम आ० विद्यानन्द , हैं अपने विचारमें संशोधन भी कर लिया है। और अब यह असन्दिग्ध है कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारम' आदि पद्य आ० विद्यानन्दके प्रामाणिक उल्लेखों आदिके आधारसे तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण सिद्ध है। इस चर्चाका परिणाम यह हुआ कि जो उक्त मङ्गलस्तोत्रके मीमांसाकार आचार्य समन्तभद्रस्वामीको पूज्यपादका उत्तरवर्ती बताया जाने लगा था वह बन्द हो गया और इसीसे 'अनेकान्त' सम्पादक विद्वद्वर्य पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव नामक' सम्पादकीय लेखमें स्पष्टतया लिखा था कि-'प्रोत्यानारम्भकाले' पदके अर्थकी खोंचतान उसी वक्त तक चल सकती थी जब तक विद्यानन्दका कोई स्पष्ट उल्लेख इस विषयका न मिलता कि वे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मङ्गलस्तोत्रको किसका बतला रहे हैं । चुनाँचे न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलालजी कोठिया और पण्डित रामप्रसादजी शास्त्री आदि कुछ विद्वानोंने जब पण्डित महेन्द्रकुमारजीकी भूलों तथा गलतियोंको पकड़ते हुए, अपने उत्तरलेखोंद्वारा विद्यानन्दके कुछ अभ्रान्त उल्लेखोंको सामने रक्खा और यह स्पष्ट करके बतला दिया कि विद्या
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