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________________ प्रस्तावना तया बतलाया है। तत्वार्थसूत्रके मङ्गलाचरणमें मोक्षमार्गनेतृत्व ( हितोपदेशिता ), कर्मभूभृद्भेतृत्व ( वीतरागता ) और विश्वतत्त्वज्ञातृत्व ( सर्वज्ञता ) इन तीन गणोंसे विशिष्ट आप्तका वन्दन और स्तवन किया गया है । आप्तपरीक्षामें आप्तमीमांसाकी तरह इन्हीं तीन गुणोंसे युक्त आप्तका उपपादन और समर्थन करते हुए अन्ययोगव्यवच्छेदसे ईश्वर, कपिल, बुद्ध और ब्रह्मकी परीक्षापूर्वक अरहन्तजिनको आप्त सुनिर्णीत किया गया है। __ इस ग्रन्थमें कुल एक-सौ चौबीस ( १२४) कारिकाएँ हैं और उनपर स्वयं विद्यानन्दस्वामोको 'आप्तपरीक्षालङ्कृति' नामकी स्वोपज्ञटीका है जो बहुत ही विशद और प्रसन्न है। इन कारिकाओं और उनकी टोकाओंमें प्रथमकी दो कारिकाएँ और उनकी टीका मङ्गलाचरण तथा मङ्गलाचरणप्रयोजनकी प्रतिपादक हैं। तीसरी कारिका तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरणपद्य है और उसे ग्रन्थकारने अपने इस ग्रन्थका उसी प्रकार अङ्ग बना लिया है जिस प्रकार अकलङ्कदेवने आप्तमीमांसाकी 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' ( का० ५ ) को न्यायविनिश्चय ( का० ४१५ ) और पात्रस्वामीकी 'अन्यथानुपपन्नत्वं' इस कारिकाको न्यायविनिश्चय (का० ३२३) का तथा न्यायावतारकार सिद्धसेनने रत्नकरण्डश्रावकाचारके 'आप्तोपज्ञमनुल्ल ध्य-' (श्लोक ९) को न्यायावतार (का० ९) का अङ्ग बनाया है । चौथी कारिका और उसकी टीकामें तीसरी कारिकामें आप्तके लिये प्रयुक्त हए असाधारण विशेषणोंका प्रयोजन दिखाया गया है। पाँचवींसे सतहत्तर नन्दन उक्त मंगलस्तोत्रको सूत्रकार उमास्वातिकृत लिखा है और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण बतलाया है, तब उस खींचतानकी गति रुकी तथा मन्द पड़ी। और इसलिये उक्त मंगलस्तोत्रको पूज्यपादकृत मानकर तथा समन्तभद्रको उसीका मीमांसाकार बतलाकर निश्चितरूपमें समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका ( उत्तरवर्ती ) विद्वान् बतलानरूप कल्पनाकी जो इमारत खड़ी की गई थी वह एकदम धराशायी हो गई है । और इसीसे पण्डित महेन्द्रकुमारजीको यह स्वीकार करनेके लिये बाध्य होना पड़ा है कि आ० विद्यानन्दने उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार उमास्वाति-कृत बतलाया है।"-('अनेकान्त वर्ष ५, किरण १०-११) अतः 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' को विद्वानोंने तत्त्वार्थसूत्रका ही मंगलाचरण स्वीकार करके एक महत्त्वपूर्ण समस्याको हल कर लिया है। विशेषके लिए देखें, 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्रपरिशीलन', पृ० ३१, वी० से० मं० ट्रस्ट प्रकाशन, १९८० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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