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कारिका ७९] कपिल-परोक्षा
२०९ धर्मवचनादमुक्तात्मापेक्षया चानष्टत्वप्रतिज्ञानादिति कश्चित्; सोऽपि न विरुद्धधर्माध्यासान्मुच्यते, प्रधानस्यैकरूपत्वात् । येनैव हि रूपेण प्रधान मुक्तात्मानं प्रति चरिताधिकार नष्टं च प्रतिज्ञायते तेनैवानवसिता. धिकारमनष्टममुक्तात्मानं प्रतीति कथं न विरोधः प्रसिद्ध्येत् ? यदि पुनः रूपान्तरेण तथेष्यते तदा न प्रधानमेकरूपं स्यात् रूपयस्य सिद्धेः। तथा चैकमनेकरूपं प्रधानं सिद्ध्यत् सर्वमनेकान्तात्मकं वस्तु साधयेत्।
$ १९०. स्यादाकूतम्-न परमार्थतः प्रधानं विरुद्धयोधर्मयोरधिकरणं तयोः शब्दज्ञानानुपपातिना वस्तुशून्येन विकल्पेनाध्यारोपितत्वात् पारमार्थिकत्वे धर्मयोरपि धर्मान्तरपरिकल्पनायामनवस्थानात् । सुदूरमपि गत्वा कस्यचिदारोपितधर्माभ्युपगमे प्रधानस्याप्यारोपितावेव नष्टत्वानष्टत्वधर्मों स्यातामवसितानवसिताधिकारत्वधर्मों च तदपेक्षानिमित्तं
नहीं है, मुक्तात्माकी अपेक्षासे प्रधानके नष्टत्व धर्म कहा गया है और अमक्तात्माकी अपेक्षासे अनष्टत्व धर्म स्वीकार किया गया है । अतः उपयुक्न दोष ( विरोध ) नहीं है ?
जैन-ऐसा कथन करके भी आप विरुद्ध धर्मों के अध्याससे मुक्त नहीं होते, क्योंकि प्रधान एकरूप है। प्रकट है कि जिस रूपसे प्रधान मुक्तात्माओं के प्रति चरिताधिकार (निवृत्ताधिकार ) और नष्ट स्वीकार किया जाता है उसी रूससे अमुक्तात्माके प्रति अनवसिताधिकार ( प्रवृत्ताधिकार ) और अनष्ट माना जाता है। तब बतलाइये, विरोध कैसे प्रसिद्ध नहीं होगा ? यदि विभिन्नरूपसे वैसा ( नष्टानष्टादिरूप ) कहें तो प्रधान एकरूप सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उसके दो रूप सिद्ध होते हैं। और उस दशामें प्रधान एक और अनेकरूप सिद्ध होता हुआ समस्त वस्तुओंको अनेकान्तात्मक-एक और अनेकरूप सिद्ध करेगा।
$ १९०. सांख्य-हमारा अभिप्राय यह है कि यथार्थमें प्रधान दो विरुद्ध धर्मोंका अधिकरण नहीं है, क्योंकि शब्द और शाब्द ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले वस्तुशून्य विकल्पके द्वारा वे उसमें आरोपित होते हैं। यदि प्रधानको उनका वास्तविक अधिकरण माना जाय तो उन धर्मों में भी अन्य धर्मकी कल्पना होनेपर अनवस्था आती है। बहुत दूर जाकर भी किसी धर्मको आरोपित धर्म स्वीकार करनेपर प्रधानके भी नष्टत्व धर्म और
1. द 'मुक्तापेक्षया । 2. द 'वसिताधि3. द 'क्षाविति ।
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