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________________ २०८ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ७९ $ १८९. ननु च प्रधानमेकं निरवयवं सर्वगतं न केनचिदात्मना संस्पृष्टमपरेणासंस्पृष्टमिति विरुद्धधर्माध्यासीष्यते येन तभेदापत्तिः। कि तहि ? सर्वदा सर्वात्मसंगि, केवलं मुक्तात्मानं प्रति नष्टमपोतरात्मानं प्रत्यनष्टं निवत्ताधिकारत्वात प्रवत्ताधिकारत्वाच्चेति चेतन; विरुद्धधर्माध्यासस्य तदवस्थत्वात्प्रधानस्य भेदानिवृत्तेः। न होकमेव निवृत्ताधिकारत्वप्रवृत्ताधिकारत्वयोयुगपदधिकरणं युक्तं नष्टत्वानष्टत्वयोरिव विरोधात् । विषयभदान्न तयोविरोधः कश्चित्क्वचित् पितृत्वपुत्रत्वधर्मवत्। तयोरेकविषययोरेव विरोधात् । निवृत्ताधिकारत्वं हि मुत्तःपुरुषविषयं प्रवृताधिकारत्वं पुनरमुक्तपुरुषविषयमिति भिन्नपुरुषापेक्षया भिन्नविषयत्वम् । नष्टत्वानष्टत्वधर्मयोरपि मुक्तात्मानमेव प्रति विरोधः स्यादमुक्तात्मानं प्रत्येव वा, न चैवम, मुक्तात्मापेक्षया प्रधानस्य नष्टत्व. $ १८२. सांख्य-हम एक, निरंश और व्यापक प्रधानको किसी स्वरूपसे संसर्गयुक्त और अन्य स्वरूपसे असंसर्गयुक्त ऐसा विरुद्ध धर्माध्यासी नहीं कहते हैं, जिससे प्रधानभेदका प्रसङ्ग प्राप्त हो, किन्तु हमारा कहना यह है कि प्रधान सर्वदा सबरूपसे संसर्गयुक्त है, केवल मुक्तात्माके प्रति नष्ट होता हुआ भी अन्य संसारी आत्माके प्रति अनष्ट है, क्योंकि मक्तात्माके प्रति तो निवृत्ताधिकार है-निवृत्त हो चुका है और संसारी आत्माके प्रति प्रवृत्ताधिकार है-उसके भोगादिके सम्पादनमें प्रवृत्त रहता है ? जैन-नहीं, क्योंकि विरुद्ध धर्मोका अध्यास प्रधानके पहले जैसा ही बना हुआ है और इसलिये प्रधानभेदका प्रसंग दूर नहीं होता। प्रकट है कि एक हो प्रधान प्रवृत्ताधिकार और निवृत्ताधिकार दोनोंका एक-साथ अधिकरण नहीं बन सकता है, क्योंकि नष्टत्व और अनष्टत्वकी तरह उनमें विरोध है। ____सांख्य-दोनोंमें विषयभेद होनेसे विरोध नहीं है, जैसे किसीमें पितृत्व और पुत्रत्व दोनों धर्म विषयभेदसे पाये जाते हैं । हाँ, एकविषयक माननेमें ही उनमें विरोध आता है । स्पष्ट है कि निवृत्ताधिकारपना मुक्त पुरुषको विषय करता है और प्रवृत्ताधिकारपना संसारी पुरुषको विषय करता है, इसलिये भिन्न पुरुषकी अपेक्षासे भिन्नविषयता विद्यमान है। यदि नष्टत्व धर्म और अनष्टत्व धर्म दोनों मुक्तात्माके प्रति ही कहे जायें तो विरोध है अथवा दोनों संसारी आत्माके प्रति कहे जायें तो विरोध है लेकिन ऐसा 1. द 'कस्यचित'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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