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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ७७ अन्यथाऽस्तीति व्यवहारायोगात् इति केचिद्वैशेषिकाः समभ्यमंसत' । $ १८२. तांश्च परे प्रतिक्षिपन्ति । सामान्यादिषूपचरितसत्त्वाभ्युपगमान्मुख्यसत्त्वे बाधकसद्भावान्न पारमार्थिकसत्त्वं सत्तासम्बन्धादिवाऽस्तित्वधर्मविशेषणबलादपि सम्भाव्यते सत्ताव्यतिरेकेणास्तित्वधर्मग्राहकप्रमाणाभावात् । अन्यथाऽस्तित्वधर्मेऽप्यस्तीति प्रत्ययादस्तित्वान्तरपरिकल्पनायामनवस्थानुषङ्गात् । तत्रोपचरितस्यास्तित्वस्य प्रतिज्ञाने सामान्यादिष्वपि तदुपचरितमस्तु मुख्ये बाधकसद्भावात्, सर्वत्रोपचारस्य मुख्ये बाधकसद्भावादेवोपपत्तेः । प्रागभावादिष्वपि मुख्या अस्तित्वे बाधकोपपत्तेरुपचारत एवास्तित्वव्यवहारसिद्धेरिति । तेषां द्रव्यादिष्वपि सदिति ज्ञानं सत्तानिबन्धनं कुतः सिद्ध्येत् ? तस्यापि बाधकसद्भावात् । विशेषण के सामर्थ्य से ही उनमें अस्तित्व ( सत् ) का ज्ञान मानना चाहिये, अन्यथा उनमें अस्तित्वका व्यवहार नहीं बन सकता है । 2 $ १८२. जैन - आपका यह समस्त प्रतिपादन युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि आपने जो यह कहा है कि 'सामान्यादिकोंमें उपचरित सत्ता मानी है, उनमें मुख्य सत्ता माननेमें बाधाएँ होनेसे उनमें पारमार्थिक सत्ता नहीं है' वह सत्तासम्बन्धकी तरह अस्तित्वधर्मरूप विशेषण के सामर्थ्य से भी सम्भव है । कारण, सत्तासे अतिरिक्त अस्तित्वधर्मका ग्राहक प्रमाण नहीं है । तात्पर्य यह कि ऊपर जो सत्तासम्बन्धको लेकर कथन किया गया है वह अस्तित्वधर्मको लेकर भी किया जा सकता है, क्योंकि सत्तासम्बन्ध और अस्तित्वधर्म दोनों एक हैं । अतः उनमें आप भेद नहीं डाल सकते हैं । अन्यथा, अस्तित्वधर्म में भी 'सत्' का ज्ञान होनेसे दूसरे आदि अस्तित्वोंकी कल्पना होनेपर अनवस्थाका प्रसङ्ग आवेगा । १९६ यदि कहा जाय कि अस्तित्वधर्ममें उपचरित अस्तित्व है तो सामात्यादिकों में भी उपचरित अस्तित्व मानिये, क्योंकि वहाँ मुख्य अस्तित्व के मानने में बाधाएँ हैं, सब जगह मुख्यमें बाधा होनेसे ही उपचार उपपन्न होता है । इसी तरह प्रागभावादिकोंमें भी मुख्य अस्तित्व के स्वोकार करने में बाधक उपस्थित किये जा सकते हैं और इसलिये उनमें भी उपचारसे ही अस्तित्वका व्यवहार प्रसिद्ध होता है । दूसरे, द्रव्यादिकोंमें भी 'सत्' इस प्रकारका ज्ञान सत्तानिमित्तक आप कैसे सिद्ध कर सकेंगे ? 1. स ' समभ्युसंसतः,' द 'समभ्यसन्त' । 2. मुद ' मुख्य बाधक' । 3. मु 'स्तित्वबाधक' । Jain Education International 3 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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