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________________ कारिका ७७ ] ईश्वर-परीक्षा १९५ स्यात्परापरसामान्यकल्पनात्। विशेषेषु च सामान्योपगमे सामान्यज्ञानाद्विशेषानुपलम्भादुभयतद्विशेषस्मरणाच्च कस्यचिदवश्यम्भाविनि संशये तद्वयवच्छेदार्थं विशेषान्तरकल्पनानुषङ्गः। पुनस्तत्रापि सामान्यकल्पनेऽवश्यम्भावी संशयः सति तस्मिस्तद्वयच्छेदाय तद्विशेषान्तरकल्पनायामनवस्थाप्रसङ्गात्परापरविशेषसामान्यकल्पनस्यानिवृत्तेः । सुदूरमपि गत्वा विशेषेषु सामान्यानभ्युपगमे सिद्धाः सामान्यरहिता विशेषाः । समवाये च सामान्यस्यासम्भवः प्रसिद्ध एव, तस्यैकत्वात् । सम्भवे चानवस्थानुषगात, समवाये सामान्यस्य समवायान्तरकल्पनादिति न सामान्यादिष सदिति ज्ञानं सत्तानिबन्धन बाध्यमानत्वात। तथा प्रागभावादिष्वपि सत्तासमवाये प्रागभावादित्व विरोधान्न सत्तानिबन्धनमस्तीति ज्ञानम। ततोऽस्तित्वधर्मविशेषणसामर्थ्यादेव तत्रास्तीति ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम्, अन्य दसरे सामान्यकी कल्पना करनेपर अनवस्था नामक दोष प्राप्त होता है, क्योंकि दूसरे-तीसरे आदि सामान्योंकी कल्पना करनी पड़ती है और जिसका कहीं भी विश्राम नहीं है। तथा विशेषोंमें यदि सामान्य माना जाय तो सामान्यका ज्ञान होने, विशेषका ज्ञान न होने और दोनों वस्तुओंके विशेषोंका स्मरण होनेसे किसीको संशय अवश्य होगा और इसलिये उस संशयको दूर करनेके लिये दूसरे विशेषोंकी कल्पना करनी पड़ेगी और फिर उनमें भी सामान्य स्वीकार करनेपर संशय अवश्य होगा और उसके होनेपर उसको दूर करने के लिये पूनः अन्य विशेष मानना पड़ेगा और उस हालतमें अनवस्थाका प्रसंग आवेगा, क्योंकि अन्य, अन्य विशेष और सामान्यकी कल्पनाकी निवृत्ति नहीं होती। बहुत दूर जाकर भी यदि विशेषोंमें सामान्य न मानें तो प्रारम्भमें भी विशेषोंको सामान्यरहित ही मानना चाहिये। अतः सिद्ध हुआ कि विशेष सामान्यरहित हैं। और समवायमें सामान्यकी असम्भवता प्रसिद्ध ही है, क्योंकि वह एक है और अनेकमें रहनेवालेको सामान्य कहा है। और यदि समवायमें सामान्य सम्भव हो तो अनवस्था प्रसक्त होती है, क्योंकि समवायमें सामान्यके रहनेके लिये अन्य समवायोंकी कल्पना करना पड़ेगी। अतः सामान्यादिकोंमें 'सत' का ज्ञान सत्ताके निमित्तसे नहीं होता, क्योंकि उसमें बाधाएँ आती हैं। इसी तरह प्रागभावादिकोंमें भी सत्ताका समवाय माननेपर प्रागभावादिपनेका विरोध आता है और इसलिये उनमें जो अस्तित्वका ज्ञान होता है वह सत्ताके निमित्तसे नहीं होता। इसलिये अस्तित्वधर्मरूप 1. व 'वादिविरोधा'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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