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________________ १९४ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ समवायप्रसङ्गः स्वरूपेण सत्त्वाविशेषात् । यथैव हि महेश्वरस्य स्वरूपतः सत्त्वं वृद्धवैशेषिकैरिष्यते तथा पृथिव्यादिद्रव्याणां रूपादिगुणानामुत्क्षेपणादिकर्मणां सामान्यविशेषसमवायानां च प्रागभावादीनामपीष्यत एव तथापि क्वचिदेव सत्त्वसमवायसिद्धौ नियमहेतुर्वक्तव्यः। सत्सदिति ज्ञानमबाधितं नियमहेतुरिति चेत्, न; तस्य सामान्यादिष्वपि भावात् । यथैव हि द्रव्यं सत्, गुणः सत्, कर्म सदिति ज्ञानमबाधितमुत्पद्यते तथा सामान्यमस्ति, विशेषोऽस्ति समवायोऽस्ति, प्रागभावादयः सन्तीति ज्ञानमप्यबाधितमेव सामान्यादिप्रागभावादितत्त्वास्तित्वमन्यथा तद्वादिभिः कथमभ्युपगम्येत ? तत्रास्तित्वधर्मसद्धावादस्तीति ज्ञानं न पुनः सत्तासम्बन्धात, अनवस्थाप्रसङ्गात् । सामान्ये हि सामान्यान्तरपरिकल्पनायामनवस्था वैशेषिक-हम स्वरूपतः असत् महेश्वरमें सत्ताका समवाय स्वीकार नहीं करते किन्तु स्वरूपसे सत् महेश्वरमें सत्ताका समवाय मानते हैं, अतः उक्त दोष नहीं है ? __ जैन-इस तरह तो सामान्यादिकमें भी सत्ताके समवायका प्रसङ्ग आयेगा, क्योंकि स्वरूपसे सत् वे भी हैं। प्रगट है कि जिस प्रकार वृद्ध वैशेषिक महेश्वरको स्वरूपतः सत् स्वीकार करते हैं उसी प्रकार वे पृथिवी आदि द्रव्योंको, रूपादिक गुणोंको और उत्क्षेपणादि कर्मोको तथा सामान्य, विशेष, समवायको एवं प्रागभावादिकोंको भी स्वरूपसे सत् स्वीकार करते हैं। फिर भी किन्हीं में ही सत्ताका समवाय सिद्ध किया जाय तो उसमें नियामक हेतु बतलाना चाहिये। ___ वैशेषिक-'सत् सत्' इस प्रकारका निर्बाध ज्ञान नियामक हेतु है, इसलिये उपयुक्त दोष नहीं है ? जैन-नहीं, 'सत् सत्' इस प्रकारका निधि ज्ञान तो सामान्यादिकोंमें भी होता है । स्पष्ट है कि जिस प्रकार 'द्रव्य सत्,' 'गुण सत्', 'कर्म सत्' इस प्रकारका अबाधित ज्ञान उत्पन्न होता है उसी प्रकार 'सामान्य है, विशेष है, समवाय है, प्रागभावादिक हैं' इस प्रकारका ज्ञान भी अबाधित ही उत्पन्न होता है। अन्यथा, आप लोग सामान्यादिक तथा प्रागभावादिक तत्वोंके अस्तित्वको कैसे स्वीकार कर सकेंगे ? वैशेषिक-सामान्यादिक तथा प्रागभावादिकमें अस्तित्वधर्मके सद्भावसे 'सत्' का ज्ञान होता है, न कि सत्ताके समवायसे। क्योंकि उनमें सत्ताका समवाय माननेपर अनवस्था आती है। प्रसिद्ध है कि सामान्यमें 1. व 'सामान्यादिषु प्रागभावादिषु चास्तित्व' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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