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कारिका ७७ ]
विधेरवश्यम्भावादुभयप्रतिषेधस्या
दितः, तदेकतरप्रतिषेधेऽन्यतरस्य सम्भवात्, कथञ्चित्सत्त्वासत्त्वयोर्वैशेषिकै रनभ्युपगमात् । [ स्वरूपेणासतः सतो वा महेश्वरस्य सत्त्व समवायस्वीकारे दोषप्रदर्शनम् | $ १८१. किञ्च, स्वरूपेणासति महेश्वरे सत्त्वसमवाये प्रतिज्ञायमाने खाम्बुजे सत्त्वसमवायः परमार्थतः किन्न भवेत् ? स्वरूपेणासत्त्वाविशेषात् । खाम्बुजस्याभावान्न तत्र सत्त्वसमवायः पारमार्थिके सद्वर्गे द्रव्यगुणकर्मलक्षणे सत्त्वसमवायसिद्धेर्महेश्वर एवात्मद्रव्यविशेषे सत्त्वसमवाय इति च स्वमनोरथमात्रम्, स्वरूपेणासतः कस्यचित्सद्वर्गत्वासिद्धेः । स्वरूपेण सति महेश्वरे सत्त्वसमवायोपगमे सामान्यादावपि सत्त्व
ईश्वर - परीक्षा
प्रतिषेध करनेमें प्राप्त दुष्परिहार्य विरोधका प्रतिपादन जानना चाहिये, क्योंकि उनमें से एकका प्रतिषेध करनेपर दूसरेका विधान अवश्य होगा, दोनोंका प्रतिषेध असम्भव है और वैशेषिकोंने कथंचित् सत्ता और कथंचित् असत्ता एवं कथंचित् द्रव्यत्व और कथंचित् अद्रव्यत्व आदि स्वीकार नहीं किया है।
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$ १८१. दूसरे, आप स्वरूपतः असत् महेश्वर में सत्ताका समवाय मानते हैं अथवा स्वरूपतः सत् में ? यदि स्वरूपतः असत् महेश्वर में सत्ताका समवाय मानें तो आकाशकमलमें सत्ताका समवाय वास्तविक क्यों नहीं हो जाय, क्योंकि स्वरूप से असत् वह भी है और इसलिये स्वरूपसे असत्की अपेक्षा दोनों समान हैं— कोई विशेषता नहीं है ।
वैशेषिक - आकाशकमलका तो अभाव हैं, इसलिये उसमें सत्ताका समवाय नहीं हो सकता । लेकिन पारमार्थिक द्रव्य, गुण और कर्मरूप सद्वर्ग में सत्ताका समवाय हो सकता है और इसलिये आत्मद्रव्यविशेषरूप महेश्वरनें ही सत्ताका समवाय सिद्ध है ?
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जैन - यह आपका मनोरथमात्र है - आपके अपने मनकी केवल कलाना है, क्योंकि स्वरूपतः असत् कोई सद्वर्ग सिद्ध नहीं हो सकता । तात्पर्य यह कि जब महेश्वरको स्वरूपतः असत् मान लिया तब वह सद्वर्ग सिद्ध नहीं हो सकता और जब वह सद्वर्ग नहीं है - पर्वथा असत् है तो उसमें और आकाशकमल में कोई भेद नहीं है अतः स्वरूपसे असत् महेश्वरमें सत्ताका समवाय माननेपर आकाशकमल में भी वह प्रसक्त होता है ।
1. मु' पारमार्थिकः' ।
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