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________________ १८९ कारिका ७७ ] ईश्वर-परीक्षा किं न साधयेत् ? विधिप्रतिषेधरूपत्वाविशेषात्कथञ्चिदुपलभ्यमानयोविरोधानवकाशात् । येनैव स्वरूपेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वमिति सर्वथापितयोरेव सत्त्वासत्त्वयोयुगपदेकत्र विरोधसिद्धः। १७६. कथञ्चित्सत्त्वासत्त्वयोरेकत्र वस्तुनि सकृत्प्रसिद्धौ च तद्वदेकत्वानेकत्वयोनित्यत्वानित्यत्वयोश्च सकृदेकत्र निर्णयान्न किञ्चिद्विप्रतिषिद्धम् । समवायस्यापि तथाप्रतीतेरबाधितत्वात्। सर्वथैकत्वे महेश्वर एव ज्ञानस्य समवायावृत्तिन पुनराकाशादिष्विति प्रतिनियमस्य नियामकमपश्यतो निश्चयासम्भवात् । न चाकाशादीनामचेतनता नियामिका, चेतनात्मगुणस्य ज्ञानस्य चेतनात्मन्येव महेश्वरे समवायोपपत्तेरचेतनद्रव्ये गगनादौ तदयोगात्, ज्ञानस्य तद्गुणत्वाभावादिति वक्तुयुक्तम वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्वको एक साथ सम्भवताको क्यों नहीं साधेगे ? क्योंकि विधि-प्रतिषेधरूपपना समान है और इसलिये जिनकी एक जगह एक-साथ कथंचित् उपलब्धि होती है उनमें विरोध नहीं आता है। हाँ, यदि जिसरूपसे अस्तित्व माना जाता है उमोरूपसे नास्तित्व कहा जाता तो उन सर्वथा एकान्तरूप अस्तित्व-नास्तित्वधर्मों के ही एक-साथ एक-जगह रहने में विरोध होता है-कथंचित् में नहीं। $ १७६. इस प्रकार कथंचित् अस्तित्व और कथंचित् नास्तित्वकी एक जगह वस्तुमें जब एक-साथ प्रसिद्धि हो जाती है तो वैसे हो एकपना और अनेकपनाकी तथा नित्यपना और अनित्यपनाको एक जगह वस्तुमें एकसाथ सिद्धि हो जाती है। अतः उसमें कुछ भी विरोध नहीं है। समवाथ भी एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदिरूप प्रतीत होता है और उस प्रतोतिमें कोई बाधा नहीं है । यथार्थमें यदि समवाय एक हो तो 'महेश्वरमें हो ज्ञानको समवायसे वृत्ति है, आकाशादिकमें नहीं' इस व्यवस्थाका कोई नियामक न दिखनेसे ज्ञानका महेश्वरम निश्चय नहीं हो सकता है। और यह कहना युक्त नहीं कि 'आकाशादिक तो अचेतन हैं और ज्ञान चेतन-आत्माका गुण है, इसलिये वह चेतनात्मक महेश्वरमें ही समवायसे रहता है, अचेतनद्रव्य आकाशादिकोंमें नहीं। कारण, ज्ञान उनका गुण नहीं है-महेश्वरका है । अतः आकाशादिनिष्ठ अचेतनता उक्त व्यवस्थाकी नियामक है।' क्योंकि वैशेषिकोंने महेश्वरको भी स्वतः अचेतन स्वीकार किया है और इसलिये आकाशादिकसे महेश्वरके भेद सिद्ध नहीं होता। तात्पर्य यह उक्त व्यवस्थाकी नियामक आकाशादिककी अचेतनता नहीं 1. म 'द्रव्यगगना' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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