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________________ १८८ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ न चैकत्राधिकरणे परस्परमेकत्वानेकत्वे नित्यत्वानित्यत्वे वा विरुद्ध, सकलबाधकरहितत्वे सत्युपलभ्यमानत्वात्, कथञ्चित्सत्त्वासत्त्ववत् । [ सत्त्वासत्त्वयोरेकत्र वस्तुनि युगपद्विरोधमाशक्य तत्परिहारप्रदर्शनम् ] $ १७५. यदप्यभ्यधायि-- सत्त्वासत्त्वे नैकत्र वस्तुनि सकृत्सम्भवतः, तयोविधिप्रतिषेधरूपत्वात् । ययोविधिप्रतिषेधरूपत्वं ते नैकत्र वस्तुनि सकृत्सम्भवतः, यथा शीतत्वाशीतत्वे । विधिप्रतिषेधरूपे च सत्त्वासत्त्वे । तस्मान्नैकत्र वस्तुनि सकृत्सम्भवत इति; तदप्यनुपपन्नम्; वस्तुन्येकत्राभिधेयत्वानभिधेयत्वाभ्यां सकृत्सम्भवद्भ्यां व्यभिचारात् । कस्यचित्स्वाभिधायकाभिधानापेक्षयाऽभिधेयत्वमन्याभिधायकाभिधानापेक्षया चानभिधेयत्वं सकृदुपलभ्यमानमबाधितमेकत्राभिधेयत्वानभिधेयत्वयोः सकृत्सम्भवं साधयतीत्यभ्यनुज्ञाने स्वरूपाद्यपेक्षया सत्त्वं पररूपाद्यपेक्षया चासत्त्वं निर्बाधमनुभूयमानमेकत्र वस्तुनि सत्त्वासत्त्वयोः सकृत्सम्भवं विशेष होते हैं । कथंचित् वह नित्य ही है, क्योंकि 'वही यह है' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है । कथंचित् अनित्य ही है, क्योंकि विभिन्न कालोंमें वह प्रतीत होता है । और यह नहीं कि एक जगह एकपना और अनेकपना तथा नित्यपना और अनित्यपना परस्पर विरोधी हों, कपोंकि बिना किसी बाधकके वे एक जगह उपलब्ध होते हैं, जैसे कथंचित् अस्तित्व और कथंचित् नास्तित्व । १ ५. वैशेषिक-एक वस्तु में एक-साथ अस्तित्व और नास्तित्व सम्भव नहीं हैं, क्योंकि वे विधि और प्रतिषेधरूप हैं । जो विधि और प्रतिपेधरूप होते हैं वे एक जगह वस्तु में एक-साथ नहीं रह सकते हैं, जैसे शीतता और उष्णता । और विधि-प्रतिषेधरूप अस्तित्व और नास्तित्व हैं। इस कारण वे एक जगह वस्तुमें एक-साथ नहीं रह सकते हैं ? जैन-आपका यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि एक जगह एक-साथ रहनेवाले अभिधेयपने और अनभिधेयपनेके साथ आपका हेतु व्यभिचारी है। किसी एक वस्तुके अपने अभिधायक शब्दकी अपेक्षा अनभिधेयपना और अन्य वस्तुके अभिधायक शब्दको अपेक्षा अनभिधेयपना दोनों एक-साथ स्पष्टतया पाये जाते हैं और इसलिये वह एक जगह अभिधेयपने और अनभिधेयपनेकी एकसाथ सम्भवताको साधता है, इस तरह जब यह स्वीकार "किया जाता है तो स्वरूपादिककी अपेक्षासे अस्तित्व और पररूपादिककी अपेक्षासे नास्तित्व, जो कि निर्बाधरूपसे अनुभवमें आ रहे हैं, एक जगह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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