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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका सिद्धि टीकाका उल्लेख तक नहीं किया। प्रत्युत आप्तपरीक्षामें उक्त मंगलश्लोकको स्पष्टरूपसे सूत्रकारकृत बतलाया है और अष्टसहस्रीके प्रारम्भमें 'निश्रेयसशास्त्रस्यादौ "मुनिभिः संस्तुतेन' आदि लिखकर स्पष्टरूपसे 'मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थसूत्रका निर्देश किया है। पता नहीं पं० सुखलालजी जैसे दूरदर्शी बहुश्रुत विद्वान्ने ऐसा कैसे लिख दिया । हो सकता है परनिर्भर होनेके कारण उन्हें दूसरोंने ऐसा ही बतलाया हो; क्योंकि पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने न्यायकूमदचन्द्र भाग २ की प्रस्तावना' में पं० सुखलालजीके उक्त कथनका पोषण किया है। किन्तु न्यायाचार्यजी अपनी भूलको एक बार तो स्वीकार कर चुके हैं। तथापि भारतीयज्ञानपीठ, काशीसे प्रकाशित, तत्त्वार्थवृत्तिकी प्रस्तावना में उन्होंने उक्त मंगलश्लोकको कत कताके सम्बन्धमें अपनी उसी पुरानी बातको संदेहके रूपमें पुनः उठाया है। किन्तु यह सुनिश्चित है कि विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार उमास्वामीकृत ही मानते थे। अतः उनके उल्लेखोंके आधारपर स्वामी समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका विद्वान् तो नहीं ही माना जा सकता। समन्तभद्र और पात्रस्वामी
प्रारम्भमें कुछ भ्रामक उल्लेखोंके आधारपर ऐसा मान लिया गया था कि विद्यानन्दि और पात्रकेसरी एक ही व्यक्ति हैं। उसके बाद गायकवाड़सिरीज, बड़ौदासे प्रकाशित तत्त्वसंग्रह नामक बौद्ध ग्रन्थमें पूर्वपक्षरूपसे दिगम्बराचार्य पात्रस्वामीके नामसे कुछ कारिकाएँ उद्ध त पाई गई। तब इस बातकी पुनः खोज हुई और पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने अनेक प्रमाणोके आधारपर यह निविवाद सिद्ध कर दिया कि पात्रस्वामी या पात्रकेसरी विद्यानन्दिसे पृथक् एक स्वतंत्र आचार्य हो गये हैं। फिर भी पं० सुखलालजीने स्वामी समन्तभद्र और पात्रस्वामीके एक व्यक्ति होने की सम्भावना की है जो मात्र भ्रामक है क्योंकि पात्रकेसरीका नाम तथा उनके त्रिलक्षणकदर्थन आदि ग्रन्थोंका जुदा उल्लेख मिलता है जिनका स्वामी समन्तभद्रसे कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, मात्र 'स्वामी' पदसे दोनोंका वादरायण सम्बन्ध बैठानेसे इतिहासकी हत्या अवश्य हो जायेगी।
१. 'अकलंकग्रन्थत्रय' के प्राक्कथनमें पृ० २५-२६ । २. वही, पृ० ८६ । ३. अकलङ्कग्रन्थत्रयके प्राक्कथनमें ।
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