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प्राक्कथन
१३
मानते हैं कि स्वामी समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा भी उक्त मंगलश्लोकके आधारपर ही रची गई है। किन्तु विद्यानन्दिके इस कथनकी पुष्टिकी बात तो दूर, उसका संकेत तक भी आप्तमीमांसासे नहीं मिलता और न किसी अन्य स्तोत्रसे ही विद्यानन्दिकी बातका समर्थन होता है । यद्यपि स्वामी समन्तभद्र ने अपने आप्तको 'निर्दोष' और 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' बतलाया है तथा निर्दोष' पदसे 'कर्मभूभृत् भेतृत्व' और 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' पदसे सर्वज्ञत्व उन्हें अभीष्ट है यह भी ठीक है, दोनोंकी सिद्धि भी उन्होंने की है। किन्तु उनकी सारी शक्ति तो 'युक्तिशास्त्राविरोधवाक्त्व' के समर्थन में ही लगी है। उनका आप्त इसलिये आप्त नहीं है कि वह कर्मभ भेत्ता है या सर्वज्ञ है। वह तो इसीलिये आप्त है कि उसका 'इष्ट' 'प्रसिद्ध' से बाधित नहीं होता। अपने आप्तकी इसी विशेषता (स्याद्वाद ) को दशति-दर्शाते तथा उसका समर्थन करते-करते वे ११३वीं कारिका तक जा पहँचते हैं जिसका अन्तिम चरण है-'इति स्याद्वादसंस्थितिः।' यह 'स्याद्वादसंस्थितिः' ही उन्हें अभीष्ट है वही आप्तमीमांसाका मुख्य ही नहीं, किन्तु एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है। इसके बाद अन्तिम ११४वीं कारिका आ जाती है जिसमें लिखा है कि हितेच्छु लोगोंके लिये सम्यक और मिथ्या उपदेशके भेदकी जानकारी करानेके उद्देश्यसे यह आप्तमीमांसा बनाई।
आप्तमीमांसापर अष्टशतीकार भट्टाकलंकदेवने भी इस तरहका कोई संकेत नहीं किया। उन्होंने आप्तमीमांसाका अर्थ 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' अवश्य किया है अतः विद्यानन्दिको उक्त उक्तिका समर्थन किसी भी स्तोत्रसे नहीं होता। फिर भी आचार्य समन्तभद्रके समय निर्धारणके लिये विशेष चिन्तित रहनेवाले विद्वानोंने विद्यानन्दिकी इस उक्तिको प्रमाण मानकर और उसके साथमें अपनी मान्यताको ( कि उक्त मंगलश्लोक आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिका मंगलाचरण है तत्त्वार्थसूत्रका नहीं) सम्बद्ध करके लिख ही तो दिया - 'जो कुछ हो, पर स्वामी समन्तभद्रके बारेमें अनेकविध ऊहापोहके पश्चात् मुझको अब अतिस्पष्ट हो गया है कि वे पूज्यपाद देवनन्दिके पूर्व तो हए ही नहीं। 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत आप्तके समर्थन में ही उन्होंने आप्तमीमांसा लिखी है' यह बात विद्यानन्दने आप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्रीमें सर्वथा स्पष्टरूपसे लिखा है।' यह कितना साहसपूर्ण कथन है। आचार्य विद्यानन्दिने तो पूज्यपाद या उनकी सर्वार्थ
१. 'अकलंकग्रन्थत्रय' के प्राक्कथनमें ।
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