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________________ १२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका मीमांसाको आप्तपरीक्षा कहना ही संगत होगा, क्योंकि आप्तमीमांसामें विभिन्न विचारोंकी परीक्षाके द्वारा जैन आप्तप्रतिपादित स्याद्वादन्यायकी ही प्रतिष्ठा की गई है, जबकि आप्तपरीक्षामें मोक्षमार्गोपदेशकत्वको आधार बनाकर विभिन्न आप्तपुरुषोंकी तथा उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वोंकी समीक्षा करके जैन आप्तमें ही उसकी प्रतिष्ठा की गई है। यद्यपि आप्तपरीक्षामें ईश्वर कपिल, बुद्ध, ब्रह्म आदि सभी प्रमुख आप्तोंकी परीक्षा की गई है, किन्तु उसका प्रमुख और आद्य भाग तो ईश्वरपरीक्षा है जिसमें ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्वकी सभी दृष्टिकोणोंसे विवेचना करके उसकी धज्जियां उड़ा दी गई हैं। कुल १२४ कारिकाओंमें से ७७ कारिका इस परीक्षाने घेर रक्खी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्वके निराकरणके लिये ही यह परीक्षाग्रन्थ रचा गया है। और तत्कालीन परिस्थितिको देखते हुए यह उचित भी जान पड़ता है, क्योंकि उस समय शङ्करके अद्वैतवादने तो जन्म ही लिया था। बौद्धोंके पैर उखड़ चुके थे। कपिल वेचारेको पूछता कौन था। ईश्वरके रूपमें विष्णु और शिवकी पूजा का जोर था। अतः विद्यानन्दिने उसकी ही खबर लेना उचित समझा होगा।। विद्यानन्दके उल्लेखोंकी समीक्षा स्वामी विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाकी रचना 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि मंगलश्लोकको लेकर ही की है और उक्त मंगलश्लोकको अपनी आप्तपरीक्षाकी कारिकाओंमें ही सम्मिलित कर लिया है। जिसका नम्बर ३ है। दूसरी कारिकामें शास्त्रके आदिमें स्तवन करनेका उद्देश्य बताते हुए 'इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्र शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः' लिखा है। इसकी टीकामें उन्होंने 'मुनिपुङ्गवाः' का अर्थ 'सूत्रकारादयः' किया है। आगे तीसरी कारिका, जो कि उक्त मंगलश्लोक ही है, की उत्थानिकामें भी 'किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुः' 'सूत्रकार' पदका उल्लेख किया है। चौथी कारिकाकी उत्थानिकामें उक्त सत्रकारके लिए 'भगवद्भिः' जैसे पूज्य शब्दका प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्दि उक्त मंगलश्लोकको तत्त्वार्थसूत्रकार भगवान् उमास्वामी को ही रचना मानते हैं। आप्तपरीक्षाके अन्त में उन्होंने पुनः इसी बातका उल्लेख करके उसमें इतना और जोड़ दिया है कि स्वामीने जिस तीर्थोपम स्तोत्र ( उक्त मंगलश्लोक ) की मीमांसा की विद्यानन्दिने उसीका व्याख्यान किया। यह स्पष्ट है कि 'स्वामिमोमांसित' से विद्यानन्दिका आशय स्वामी समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसासे है। अर्थात् वे ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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