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________________ कारिका ७७] ईश्वर-परीक्षा १७३ भवन् तत्रैव प्रतिनियतोऽनुभूयते न पुनरन्यत्र, इति । तथा तस्य पर्यनुयोगे. कस्यचित्स्वेष्टतत्त्वव्यवस्थाऽनुपपत्तेः। तद्वयवस्थापकप्रत्ययस्यापि पर्यनुयोग्यत्वानिवृत्तः । सुदूरमपि गत्वा यदि कस्यचित्प्रत्ययविशेषस्यानुभूयमानस्य पर्यनुयोगाविषयत्वात्ततस्तत्त्वव्यवस्थितिरभ्युपगम्यते, तदा इह शङ्करे ज्ञानमिति विशिष्टेहेदंप्रत्ययात्प्रमाणोपपन्नात्तत्रैव ज्ञानसमवायो व्यवतिष्ठते न खादिषु, विशेषणभेदात्समवायस्य भेदप्रसिद्धः इति केचिद् व्युत्पन्नवैशेषिकाः समनुमन्यन्ते । [ सत्तायाः समवायस्य च सर्वथैकत्वस्थ विस्तरत. प्रतिविधान ] १६०. तेऽपि न यथार्थवादिनः; समवायस्य सर्वथैकत्वे नानासमवापिविशेषणत्वायोगात् । सत्तादृष्टान्तस्यापि साध्यत्वात् । न हि. सर्वथैका सत्ता कुतश्चित्प्रमाणात्सिद्धा। $ १६१. ननु सत्प्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिङ्गाभावादेका सत्ता प्रसिद्धव,. मान है, पर्यनुयोग (प्रश्न ) के योग्य नहीं है कि वह वहीं क्यों प्रतिनियत. प्रतीत होता है, अन्यत्र क्यों नहीं? यदि वैसा प्रश्न हो तो कोई भी दार्शनिक अपने इष्ट तत्त्वको व्यवस्था नहीं कर सकता है, क्योंकि उसके व्यवस्थापक ज्ञानमें भी पर्यनयोग ( प्रश्न ) नहीं टाला जा सकता हैउसमें भी वह उठे बिना न रहेगा । बहुत दूर जाकर भी यदि किसी अनु-. भूयमान ज्ञानविशेषको पर्यनुयोगका विषय न माना जाय और उससे तत्त्वकी व्यवस्था स्वीकृत की जाय तो 'महेश्वर में ज्ञान है' इस प्रमाणसिद्ध विशिष्ट 'इहेदं' प्रत्ययसे महेश्वरमें ही ज्ञानका समवाय व्यवस्थित होता है, आकाशादिकमें नहीं, क्योंकि विशेषणभेदसे समवायमें भेद है, इस तकयुक्त बातको भी मानना चाहिये? $१६०. जैन-आपका यह कथन भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि समवाय जब सर्वथा एक है-वह किसी तरह भो अनेक नहीं हो सकता है तोनाना समवायी उसके विशेषण नहीं हो सकते हैं। यथार्थ में जब समवाय सर्वथा एक है तो वह अनेक समवायिओंसे विशिष्ट नहीं हो सकता है । ऊपर जो आपने समवायके एकत्वको प्रमाणित करनेके लिये सत्ताका दृष्टान्त उपस्थित किया है वह भी साध्यकोटिमें स्थित है, क्योंकि सत्ता भी किसी प्रमाणसे सर्वथा एक सिद्ध नहीं है । ६ १६१. वैशेषिक-'सत् सत्' इस प्रकारका अनुगताकार सामान्य. 1. मु‘समनुमन्यन्तोऽपि न यथार्थवादिनः' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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