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________________ १७२ आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका [ कारिका ७७ "इति कथमवबुद्धयते ? इहेति प्रत्ययात्, इति चेत्; न; तस्येह शङ्करे ज्ञानमिति प्रत्ययस्यैकसमवायहेतुकस्य खादिव्यवच्छेदेन शङ्कर एव ज्ञानसमवायसाधनासमर्थत्वात् नियामकादर्शनाद्भेदस्य व्यवस्थापयितुमशक्तेः । [ सत्तादृष्टान्तेन समवायस्यैकत्वसाधनम् ] $ १५९. ननु च विशेषणभेद एव नियामक:, सत्तावत् । सत्ता हि द्रव्यादिविशेषणभेदादेकाऽपि भिद्यमाना दृष्टा प्रतिनियतद्रव्यादिसत्त्वव्यवस्थापिका द्रव्यं सत्, गुणः सन् कर्म सदिति द्रव्यादिविशेषणविशिष्टस्य सत्प्रत्ययस्य द्रव्यादिविशिष्टसत्ताव्यवस्थापकत्वात् । तद्वत् समवायिविशेषणविशिष्टे हेदं प्रत्ययाद्विशिष्टसमवायिविशेषणस्य समवायस्य व्यवस्थितेः । समवायो हि यदुपलक्षितो विशिष्टप्रत्ययात्सिद्धयति तत्प्रतिनियमहेतुरेवाभिधीयते । यथेह तन्तुषु पट इति तन्तुपटविशिष्टेहेदं प्रत्ययात्तन्तुवेव पटस्य समवायो नियम्यते न वीरणादिषु । न चायं विशिष्टेहेदं प्रत्ययः सर्वस्य प्रतिपत्तुः प्रतिनियतविषयः समनुभूयमानः पर्यनुयोगार्हः किमिति आकाश में अथवा दिशा आदिमें नहीं, यह कैसे समझा जाय ? अगर कहें कि 'इसमें यह ' इस ज्ञानसे वह जाना जाता है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वह 'इस महेश्वर में ज्ञान है' इस प्रकारका प्रत्यय, जो एक समवाय के निमित्त से होता है, आकाशादिकको छोड़कर महेश्वर में ही ज्ञानके समवायका साधक नहीं हो सकता है । कारण, कोई नियामक न होने से उनमें भेद स्थापित करना शक्य नहीं है । $ १५९. वैशेषिक – हम उक्त प्रत्ययका नियामक सत्ताकी तरह विशेषणभेदको स्वीकार करते हैं । स्पष्ट है कि जिस प्रकार सत्ता एक होती हुई भी द्रव्यादिविशेषण के भेदसे भेदवान् उपलब्ध होती है और तत्तत् द्रव्यादिके सत्त्वकी व्यवस्थापक है, क्योंकि द्रव्य सत् है, गुण सत् है, कर्म -सत् है, इत्यादिविशेषणोंसे विशिष्ट सत्प्रत्यय ( सत्ताका ज्ञान ) द्रव्यादि - विशिष्ट सत्ताका साधक है उसी प्रकार समवायिविशेषणोंसे विशिष्ट 'इसमें यह ' इस ज्ञानसे विशिष्ट समवायिविशेषणवाले समवायकी व्यवस्था होती है। वस्तुतः जिससे उपलक्षित समवाय विशिष्ट प्रत्ययसे सिद्ध होता है उसके प्रतिनियमका हो वह कारण कहा जाता है । जैसे, 'इन तन्तुओंमें वस्त्र' इस तन्तु वस्त्र विशिष्ट 'इहेद' ज्ञानसे तन्तुओं में ही वस्त्रका समवाय नियमित होता है, वीरण ( खस ) आदिमें नहीं । और यह विशिष्ट 'इहेद' प्रत्यय, जो सभी प्रतिपत्ताओं द्वारा प्रतिनियतविषयक प्रतीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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