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________________ कारिका ४८ ] ईश्वर - परीक्षा सिद्धि:' इति वदतां समवायस्य विवादाध्यासितत्वात्तल्लक्षणासिद्धिप्रसङ्गात् । लक्षणस्याकारकत्वेन ज्ञापकत्वेऽपि तेन सिद्धेन भवितव्यम् असिद्धस्य विवादाध्यासितस्य सन्दिग्धस्य' वा तल्लक्षणत्वायोगात् । सिद्धं हि कस्यचिद्भेदकं लक्षणमुपपद्यते नान्यथेति लक्ष्यलक्षणभावविदो विभावयन्ति । तच्च युतसिद्धत्वमीश्वरज्ञानयोर्नास्त्येव, महेश्वरस्य विभुत्वान्नित्यत्वाच्चान्य द्रव्य वृत्तित्वाभावान्महेश्वरादन्यत्र तद्विज्ञानस्यावृत्तेः पृथगाश्रयवृत्तित्वाभावात् । कुण्डस्य हि कुण्डावयवेषु वृत्तिर्दध्नश्च दध्यवयवेष्विति कुण्डावयव दध्यवयवाख्यौ पृथग्भूतावाश्रयो तयोश्च कुण्डस्य दध्नश्च वृत्तिरिति पृथगाश्रयवृत्तित्वं तयोरभिधीयते । न चैवंविधं पृथगाश्रयाश्रयित्वं समवायिनोः सम्भवति, तन्तूनां स्वावयवेष्वंशुषु यथा 2 जो लक्षण है वह अयुतसिद्धिघटित है और अयुतसिद्धिका लक्षण - ( अपृथगाश्रयसमवाय ) समवायगर्भित है और इसलिये परस्पराश्रय होनेसे किसी raat भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । अतः युतसिद्धिका लक्षण समवायघटित नहीं होना चाहिये । दूसरे लक्षण कारक न होकर ज्ञापक होता है और इसलिये उसे सिद्ध होना चाहिये । जो असिद्ध, विचारकोटिमें स्थित अथवा संदिग्ध होता है वह लक्षण सम्यक् नहीं होता है । वास्तवमें जो लक्षण सिद्ध होता है वही किसीका व्यावर्तक बनता है, अन्य नहीं, ऐसा लक्ष्यलक्षणभावके जानकार प्रतिपादन करते हैं । सो वह युतसिद्धि ईश्वर और ईश्वरज्ञानमें नहीं है, क्योंकि महेश्वर विभु और नित्य है अतः उसकी दूसरे द्रव्यमें वृत्ति नहीं हो सकती है और ईश्वरको छोड़कर अन्यत्र दूसरे द्रव्यमें उसका ज्ञान भी नहीं रहता है । अतः उनमें पृथक् आश्रय में रहनारूप युतसिद्धि नहीं है। प्रकट है कि कुण्डकी अपने कुण्डावयवोंमें और दहीकी अपने दही - अवयवों में वृत्ति है और इसलिये उनके कुण्डावयव तथा दही अवयव नामके दो भिन्नभूत आश्रय ( आधार ) हैं और उनमें कुण्ड तथा दहीकी वृत्ति है, इस प्रकार उनके पृथक् आश्रय में रहना कहा जाता है । किन्तु इस प्रकारका पृथक् आश्रयमें रहना समवायिओं में सम्भव नहीं है, जिस प्रकार तन्तुओंकी अपने अवयव अंशोंमें वृत्ति है उस प्रकार पटकी तन्तुओं से 1. मु 'ग्धत्वात् तल्लक्षण' । 2. द 'किञ्चिद्भेदकं । 3. मु 'तत्र' । 4. मु स ' तद्विज्ञानत्वस्याप्रवृत्तेः' । Jain Education International १४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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