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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ४८
वृत्तिर्न तथा पटस्य तन्तुव्यतिरिक्ते क्वचिदाश्रये । न ह्यत्र चत्वारोऽर्थाः प्रीयन्ते, द्वावाश्रयो पृथग्भूतौ द्वौ चाश्रयिणाविति, तन्तोरेव' स्वावयवापेक्षयाऽऽश्रयित्वात्पटापेक्षया चाश्रयत्वात् त्रयाणामेवार्थानां प्रसिद्धेः पृथगाश्रयाश्रयित्वस्य युत सिद्धिलक्षणास्याभावादयुतसिद्धत्वं शास्त्रीयं समवायिनोः सिद्धमेव । ततोऽयुतसिद्धत्व विशेषणं साध्वेवा सिद्धत्वाभावात् । लौकिक्त सिद्धत्वं तु प्रतीतिबाधितं नाभ्युपगम्यत एव । ततः सविशेषणाद्धेतोः समवायसिद्धि:, इति येऽपि समादधतेः विदग्धवैशेषिकास्तांश्च पयनुयुञ्जमहे ।
$ १३७. विभद्रव्यविशेषाणामात्माकाशादीनां कथं न युतसिद्धिः परिकल्प्यते भवद्भिः तेषामन्याश्रयविरहात् पृथगाश्रयाश्रयित्वासम्भवात् । नित्यानां च पृथग्गतिमत्वं युतसिद्धिरित्यपि न विभुद्रव्येषु सम्भवति । तद्धि पृथग्गतिमत्त्वं द्विधा अभिधीयते कश्चित् - अन्यतर पृथग्गति
अलग दूसरी जगह वृत्ति नहीं है । निश्चय ही यहाँ चार चीजें प्रतीत नहीं होती - दो पृथक्भूत आश्रय और दो आश्रयी । किन्तु तन्तु हो अपने Tarainी अपेक्षा आश्रयी और पटकी अपेक्षा आश्रय है और इस तरह तीन ही चीजें प्रसिद्ध हैं । अतः पृथक् आश्रय में रहनारूप जो युतसिद्धिका लक्षण है वह इनमें न पाया जानेसे शास्त्रीय अयुत सिद्धि ( युतसिद्ध्यभावरूप ) समवायिओंमें सिद्ध होती है । इसलिये 'अयुत सिद्धत्व' विशेषण सम्यक् ही है क्योंकि वह असिद्ध नहीं है । लेकिन लौकिकी अयुतसिद्धि तो अनुभव से विरुद्ध है और इसलिये उसे स्वीकार नहीं करते हैं । अतः विशेषणसहित हेतुसे समवायकी सिद्धि होती है, ऐसा कुछ वैशेषिकांका कहना है ?
$ १३७. जैन - पर उनका यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि इस तरह आत्मा तथा आकाशादि विभुद्रव्यविशेषोंके युतसिद्धि कैसे बन सकेगी ? कारण, वे दूसरे आश्रय में नहीं रहते हैं और इसलिये पृथक् आश्रय में रहनारूप युतसिद्धि उनमें सम्भव नहीं है । और जो 'नित्यों के पृथक् गतिमत्तारूप युतसिद्धि' कही गई है वह भी विभु- ( व्यापक ) द्रव्यों में
1. द ' तयोरेव' |
2. मुस 'वा' । 3. मुस 'तु' । 4. मु स व 'परिकल्पते' ।
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