________________
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ४५-४८ पृथगाश्रयवृत्तित्वं युतसिद्धिर्न चानयोः । साऽस्तीशस्य विभुत्वेन परद्रव्याधितिच्युतेः ॥४५॥ ज्ञानस्यापीश्वरादन्यद्रव्यवृत्तित्वहानितः । इति येऽपि समादध्युस्तांश्च पर्यनुयुञ्जमहे ॥४६॥ विभुद्रव्यविशेषाणामन्याश्रयविवेकतः युतसिद्धिः कथं नु स्यादेकद्रव्यगुणादिषु ॥४७॥ समवायः प्रसज्येताऽयुतसिद्धौ परस्परम् । तेषां तद्वितयाऽसत्वे स्याद्व्याघातो दुरुत्तरः॥४८॥ ६ १३६. ननु च पृथगाश्रयवृत्तित्वं युतसिद्धिः, “पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिः" [ ] इति वचनात् । 'पृथगाश्रय' समवायो युत
पृथक्-भिन्न आश्रयमें रहना युतसिद्धि है, सो वह युतसिद्धि ईश्वर और ईश्वरज्ञानमें नहीं है, क्योंकि ईश्वर विभु ( व्यापक ) है, इसलिये वह दूसरे द्रव्यमें नहीं रहता। और उसका ज्ञान भी उससे भिन्न दूसरे द्रव्यमें नहीं पाया जाता। अतः इनमें युतसिद्धि नहीं है-अयुतसिद्धि है, इस प्रकार जो ( वैशेषिक ) समाधान करते हैं-अयुतसिद्धिके उपर्युक्त लक्षणमें आये दोषका निराकरण करते हैं उनसे भी हम पूछते हैं कि विभुद्रव्य अन्य द्रव्योंमें नहीं रहते हैं, अतः उनके युतसिद्धि कैसे बन सकेगी? अर्थात् नहीं बन सकती है-अयुतसिद्धि ही उनके उक्त प्रकारसे सिद्ध होती है और इसलिये उनमें तथा एकद्रव्यमें रहनेवाले रूपरसादि गुणोंमें अयुतसिद्धि प्राप्त होनेपर परस्परमें समवायसम्बन्ध प्रसक्त होता है। यदि उनमें अयुतसिद्धि न मानें तो युतसिद्धि और अयुतसिद्धि दोनोंका अभाव होनेपर जो ब्याघात-विरोध आता है वह दुर्निवार है-उसका परिहार नहीं हो सकता।
$ १३६. वैशेषिक-पृथक् आश्रयमें रहना युतसिद्धि है। कहा भी है-"भिन्न आश्रयमें रहना युतसिद्धि है ।" जो पृथगाश्रयसमवायको युतसिद्धि कहते हैं उनके यहाँ समवाय विचारकोटिमें स्थित होनेके कारण समवायलक्षणकी असिद्धिका प्रसङ्ग आता है। तात्पर्य यह कि समवायका
1. व 'श्रयः'।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.