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कारिका ४४]
ईश्वर-परीक्षा वृत्तित्वमसदेवेति प्रतिपादितम् । यतश्च गुणः कार्यद्रव्याश्रयो रूपादिः, कार्यद्रव्यं तु स्वावयवाधारं प्रतीयते, तेन गुणगुणिनोरपृथगाश्रयवृत्तित्व मसम्भाव्यमानं निवेदितम् । एतेन क्रियायाः कार्यद्रव्ये वर्तनात्कार्यद्रव्यस्य च स्वावयवेषु क्रियाक्रियावतोरपृथगाश्रयवृत्तित्वाभावः कथितः । तथा सामान्यस्य द्रव्यत्वादेव्यादिषु वृत्तव्यादीनां च स्वाश्रयेष सामान्यतद्वतोः पृथगाश्रयवृत्तित्वं ख्यापितम् । तथैवविशेषस्य कार्यद्रव्येष प्रवृत्तेः कार्यद्रव्याणां च स्वावयवेषु विशेषतद्वतोरपृथगाश्रयवृत्तित्वं निरस्तं वेदितव्यम् । ततो न शास्त्रीयायुतसिद्धिः समवायिनोरस्ति। या तु लौकिकी लोकप्रसिद्धकभाजनवृत्तिः सा दुग्धाम्भसोरपि युतसिद्धयोरस्तीति तयाऽपि नायुतसिद्धत्वं समवायिनोः साधीय इति प्रतिपत्तव्यम् । वाक्यके द्वारा-अवयव और अवयवीमें पृथगाश्रयवृत्तिता-भिन्न आश्रयमें रहना सिद्ध होता है-अपृथगाश्रयवृत्तिता ( अभिन्न आश्रयमें रहना ) का उनमें अभाव है-यह प्रतिपादन समझना चाहिये । और रूपादिक गुण कार्यद्रव्यमें रहते हैं और कार्यद्रव्य अपने अवयवोंमें रहता है, इस तरह उक्त वाक्यके द्वारा गुण और गुणीमें भी अपृथगाश्रयवृत्तिताका अभाव बतला दिया है. इसी विवेचनसे क्रिया कार्यद्रव्यमें और कार्यद्रव्य अपने अवयवोंमें रहता है, और इस तरह क्रिया-क्रियावान्के भी अपृथगाश्रयवृत्तिताका अभाव कथित हो जाता है। तथा द्रव्यत्वादिरूप सामान्य द्रव्यादिकोंमें रहता है और द्रव्यादिक अपने आश्रयोंमें रहते हैं, इस प्रकार सामान्य और सामान्यवानोंमें पृथगाश्रयवृत्तिता कही गई है। एवं विशेष कार्यद्रव्योंमें और कार्यद्रव्य अपने अवयवोंमें रहते हैं, इस तरह विशेष और विशेषवान्में अपृथगाश्रयवृत्तिताका निराकरण समझना चाहिये । अतः स्पष्ट है कि समवायिओंमें शास्त्रीय अयुतसिद्धि नहीं है। और जो लौकिकी-लोकप्रसिद्ध-एक पात्रमें दो वस्तुओंका रहनारूप अयुतसिद्धि है वह दूध और पानीमें भी मौजूद है लेकिन उनमें समवाय नहीं है--संयोग है और इसलिये उसके द्वारा भी समवायिओंमें 'अयुतसिद्धत्व' ( अयुतसिद्धपना ) सिद्ध नहीं होता।
1. मु 'कार्यद्रव्यवर्त्तना' । 2. द 'प्रवृत्तेः'। 3. व 'वृत्ति' । 4. म 'सत्या', स 'सत्या' अधिकः पाठः । 5. द 'साधीयते'।
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