________________
कारिका ४२ ]
ईश्वर-परीक्षा
१६७
शक्यं हि वक्तु स्वतः प्रतिभासवासनावशादेव स्वतः प्रतिभासः संवेदनस्य न पुनः परमार्थत इति न किञ्चित्पारमार्थिक संवेदनं सिद्ध्येत् । तथा च 'स्वरूपस्य स्वतो गतिः' इति रिक्ता वाचोयुक्तिः। तदनेन कुतश्चित्किञ्चित्परमार्थतः साधयता दूषयता वा साधनज्ञानं दूषणज्ञानं वाऽभ्रान्तं सालम्बनमभ्युपगन्तव्यम् । तद्वत्सर्वमबाधितं ज्ञानं सालम्बनमिति कथमिहेदमिति प्रत्ययस्याबाधितस्य निरालम्बनता? येन वासनामात्रहेतुरयं स्यात् । नापि निर्हेतुकः, 'कादाचित्कत्वात् । ततोऽस्य विशिष्टः पदार्थो हेतुरभ्युपगन्तव्य इति वैशेषिकाः।
$ १३१. तेऽप्येवं प्रष्टव्याः; कोऽसौ विशिष्टः पदार्थः ? समवायः सम्बन्धमात्र वा ? न तावत्समवायः, तद्धेतुकत्वे साध्येऽस्येहेदमिति प्रत्ययस्येह कुण्डे दधीत्यादिना निरस्तसमस्तबाधकेन प्रत्ययेन व्यभिचाही हो जाय। हम कह सकते हैं कि 'संवेदनका स्वतः प्रतिभास स्वतः प्रतिभासरूप वासनाके वशसे ही होता है, परमार्थतः नहीं' और इस तरह कोई ज्ञान परमार्थिक सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव ‘स्वरूपस्य स्वतो गतिः' अर्थात् स्वरूप (ज्ञान) की अपने आप ही प्रतिपत्ति हो जाती है, यह केवल कथनमात्र है, उसका कोई अर्थ नहीं है। इस कारण किसी साधनसे किसी साध्यको यदि वास्तव में सिद्ध अथवा दूषित करना चाहते हैं तो साधनज्ञान और दूषणज्ञानको अभ्रान्त-भ्रान्ति रहित और सविषय स्वीकार करना चाहिये अर्थात् उन्हें वास्तविक अर्थको विषय करनेवाला मानना चाहिये। उसी प्रकार सभी अबाधित ज्ञानोंको सविषय मानना सर्वथा युक्तियुक्त है। ऐसी दशामें 'इसमें यह है' यह अबाधित प्रत्यय निरालम्बन -निविषय कैसे माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता और जिससे वह वासनामात्रके निमित्तसे होनेवाला कहा जाय। और न वह प्रत्यय बिना निमित्तके है क्योंकि कादाचित्क है-कभी होता है और कभी नहीं होता, अर्थात् जन्य है और जब वह जन्य है तो उसका कोई विशिष्ट पदार्थ निमित्त अवश्य स्वीकार करना चाहिये ?
$ १३५. जैन-आपसे हम पूछते हैं कि वह विशिष्ट पदार्थ क्या है ? क्या समवाय है अथवा, सम्बन्धसामान्य है ? वह समवाय तो हो नहीं सकता, क्योंकि समवायके निमित्तसे उस प्रत्ययको सिद्ध करनेमें 'इसमें यह है' वह 'इस कुण्ड में दही है' इस अबाधित प्रत्ययके साथ व्यभिचारी
1. द तदेतेन'। 2. मु 'कदा'।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org