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________________ १३६ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ४२ त्पत्तेः। नापि पटहेतुकः, पटात्पट इति प्रत्ययस्योदयात् । नापि वासनाविशेषहेतुकः, तस्याः कारणरहितायाः सम्भवाभावात् । पूर्व तथाविधज्ञानस्य तत्कारणत्वे तदपि कुतो हेतोरिति चिन्त्यमेतत् । पूर्वतद्वासनात इति चेत्, न, अनवस्थाप्रसंगत् । ज्ञानवासनयोरनादिसन्तानपरिकल्पनायां कुतो बहिरर्थसिद्धिः? अनादिवासनाबलादेव नीलादिप्रत्ययानामपि भावात्। न चैवं विज्ञानसन्ताननानात्वसिद्धिः, सन्तानान्तरग्राहिणो विज्ञानस्यापि सन्तानान्तरमन्तरेण वासनाविशेषादेव तथाप्रत्ययप्रसते, स्वप्नसन्तानान्तरप्रत्ययवत् । नानासन्तानानभ्युपगमे चैकज्ञानसन्तानसिद्धिरपि कुतः स्यात् ? स्वसन्तानाभावेऽपि तद्ग्राहिणः प्रत्ययस्य भावात् । स्वसन्तानस्थाप्यनिष्टौ संविद्वैतं कुतः साधयेत् ? स्वतः प्रतिभासतादिति चेत्, न, तथावासनाविशेषादेव स्वतः प्रतिभासस्यापि भावात् । से नहीं होता, अन्यथा 'तन्तुओंमें तन्तु हैं' यह प्रत्यय होना चाहिये । और न वह प्रत्यय पटके निमित्तसे होता है, नहीं तो 'पटसे पट होता है यह प्रत्यय उत्पन्न होगा। तथा न वह वासनाविशेषके निमित्तसे होता है क्योंकि वासनाका जनक कोई कारण नहीं है और इसलिए कारणरहित वासना असम्भव है। यदि उसका कारण उक्त प्रकारका कोई पूर्ववर्ती ज्ञान स्वीकार किया जाय तो वह ज्ञान किस कारणसे होता है ? यह विचारणीय है। यदि कहें कि वह अपनी पूर्व वासनासे होता है, तो यह कथन ठोक नहीं है, कारण उसमें अनवस्था आती है। अगर कहा जाय कि ज्ञान और वासनाको अनादि परम्परा मानते हैं, तो बाह्य पदार्थोकी सिद्धि फिर कैसे हो सकेगी? क्योंकि अनादिवासनाके बलसे ही नीलादि प्रत्यय भी उत्पन्न हो जायेगे। दूसरी बात यह है कि इस तरह नाना विज्ञानसन्तानें भी सिद्ध न हो सकेंगी, क्योंकि द्वितीयादिसन्तानोका ग्राहक ज्ञान भी अन्य सन्तानके बिना वासनाविशेषसे ही उक्त प्रत्ययको उत्पन्न कर देगा, जैसे अन्य स्वप्नसन्तानें वासनाविशेषसे हो उत्पन्न हो जाता हैं। और जब इस प्रकार नाना विज्ञानसन्तानें अस्वीकृत हो जायेंगी तो एकज्ञानसन्तानकी सिद्धि भी कैसे बन सकेगी? क्योंकि स्वसन्तानके अभावमें भी स्वसन्तानग्राही प्रत्यय निष्पन्न हो जाता है। तात्पर्य यह कि ज्ञानसन्तानको माने बिना भी ज्ञानसन्तानग्राहक प्रत्यय वासनाके बलसे ही समुपपन्न हो जायगा। और जब एक विज्ञानसन्तान भी अस्वीकृत हो जायगी तो संवेदनाद्वैतकी सिद्धि कैसे होगी ? यदि कहा जाय कि उसका स्वतः ही प्रतिभास होता है तो वह स्वतः प्रतिभास भो वासनाविशेषसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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