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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३५ सत्येव कार्याणां प्रसूते-स्तदन्वयसिद्धिस्तन्निमित्तपर्यायाणामभावे वाऽनुत्पत्तेर्व्यतिरेकसिद्धिरिति तदन्वयव्यतिरेकानुविधानमिष्यते तदेश्वरस्य तदिच्छाविज्ञानयोश्च नित्यत्वेऽपि तन्वादिकार्याणां तद्भाव एव भावात्तदन्वयस्तत्सहकारिकारणावस्थाऽपाये च तेषामनुत्पत्तव्यतिरेक इति तदन्वयव्यतिरेकानुविधानमिष्यताम्, विशेषाभावात् । ततः सर्वकार्याणां बुद्धिमत्कारणत्वसिद्धिः, इति परे प्रत्यवतिष्ठन्ते।
६ ११४. तेऽपि न कार्यकारणभावविदः; स्याद्वादिनां द्रव्यस्य पर्यायनिरपेक्षस्य पर्यायस्य वा द्रव्यनिरपेक्षस्य द्रव्यपर्याययोर्वा परस्परनिरपेक्षयोः कार्यकारित्वानभ्युपगमात्, तथा प्रतीत्यभावात्, द्रव्यपर्यायात्म. कस्यैव जात्यान्तरवस्तुनः कार्यकारित्वेन सम्प्रत्ययात् कार्यकारणभावस्य
पर्याय हो तो-समस्त पर्यायें एक समयमें ही हो जायेंगी और इसलिये 'उसके होनेपर उसका होना' रूप अन्वय उपपन्न ( सिद्ध ) नहीं होता। अगर कहा जाय कि द्रव्यके होनेपर ही कार्य उत्पन्न होते हैं और इसलिये उसका अन्वय उपपन्न हो जाता है तथा उन कार्योंकी निमित्तकारणीभत पर्यायोंके न होनेपर कार्य उत्पन्न नहीं होते, इस तरह व्यतिरेक भी सिद्ध हो जाता है, इस प्रकार द्रव्य और पर्याय दोनोंका अन्वय-व्यतिरेक व्यवस्थित है तो ईश्वर और ईश्वर-इच्छा एवं ईश्वर-ज्ञानको नित्य स्वीकार करने में भी शरीरादिकार्य ईश्वरादिकके होनेपर ही होते हैं, तथा उसके सहकारी कारणरूप अमुक अवस्थाके न होनेपर नहीं होते हैं, इस तरह अन्वय
और व्यतिरेक दोनों बन जाते हैं और इसलिये ईश्वरादिकका अन्वय-व्यतिरेक भी आपको कहना चाहिये अर्थात् उसे मानना चाहिये क्योंकि दोनों जगह कोई विशेषता नहीं है। अतः समस्त कार्योंका बुद्धिमान् कारण अवश्य सिद्ध है ?
११४. जैन-आपने कार्य-कारणभावको नहीं समझा, क्योंकि हमारे यहाँ पर्यायकी अपेक्षासे रहित केवल द्रव्यको और द्रव्यकी अपेक्षासे रहित केवल पर्यायको तथा परस्पर एक-दूसरेकी अपेक्षासे रहित द्रव्य और पर्याय दोनोंको कार्यकारी अर्थात् कार्यका करनेवाला (कारण) नहीं माना है। कारण, वैसी प्रतीति नहीं होती है। किन्तु द्रव्य-पर्यायरूप विजातीय वस्तु ही कार्यकी जनक प्रतीत होनेसे वही कार्यकारणभावरूप स्वीकार
1. मु 'प्रसृते'। 2. द 'ते'।
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