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कारिका ३५ ] ईश्वर-परीक्षा
११७ स्तुव्यवस्थापनात्सर्वथा शून्यवादप्रतिक्षेपसिद्धिरिति कथञ्चिभेदाभेदात्मकं कथञ्चिद्धर्मधात्मकं कथञ्चिद्रव्यपर्यायात्मकमिति प्रतिपाद्यते स्याद्वादन्यायनिष्ठैस्तथैव तस्य प्रतिष्ठितत्वात्, सामान्यविशेषवत्, मेचकज्ञानवच्च। तत्र विरोधवैयधिकरण्यादिषणमनेनैवापसारितमिति कि नश्चिन्तया।
११३. नन्वेवं' स्थाद्वादिनामपि द्रव्यस्य नित्यत्वात्तदन्वयव्यतिरेकानुविधान कार्याणां न स्यात्, ईश्वरान्वयव्यतिरेकानुविधानवत् । पर्यायाणां च क्षणिकत्वात्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानमपि न घटते। नष्टे पूर्वपर्याये स्वयमसत्येवोत्तरकार्यस्योत्पत्तेः सति चानुत्पत्तेः । अन्यथैकक्षणवृत्तित्वप्रसङ्गात् सर्वपर्यायाणामिति तद्भावभावित्वानुपपत्तिः। यदि पुनद्रव्ये परस्पर सापेक्ष-आपसमें एक दूसरेकी अपेक्षासे सहित-भेदाभेदका ग्रहण होनेसे जात्यान्तर-सर्वथा भेदाभेदसे विजातीय कथंचिद्भदाभेदरूप वस्तुको व्यवस्था होतो है और इसलिये सर्वथा शून्यवादका भी निराकरण हो जाता है। अतएव स्याद्वादन्यायके विवेचक जैन विद्वान् वस्तुको कथंचित् भेदाभेदरूप, कथंचित् धर्म-धर्मीरूप और कथंचित् द्रव्य-पर्यायरूप प्रतिपादन करते हैं क्योंकि वह उसी प्रकारसे प्रतिष्ठित है, जैसे सामान्य और विशेष तथा मेचकज्ञान । मतलब यह कि जिसप्रकार नैयायिक और वैशेषिक द्रव्यत्वादिको सामान्य और विशेष दोनोंरूप स्वीकार करते हैं और दोनोंको ही अविष्वग्भावरूप मानते हैं तथा जिसप्रकार बौद्ध मेचकज्ञानको नीलादि अनेकरूप कथन करते हैं और उन रूपोंको अविष्वग्भावरूप मानते हैं उसीप्रकार सभी वस्तुएँ कथंचित् भेदाभेदरूप, कथंचित धर्मधर्मीरूप और कचित् द्रव्य-पर्यायरूप सिद्ध हैं । उसमें विरोध, वैयधिकरण्य आदि दूषण इस 'कथंचित्' विशेषण द्वारा परिहृत (दूर) हो जाते हैं, इसलिये हमारे दूषणोंकी आपको चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
६ ११३. वेशेषिक-इस प्रकार तो जैनोंके यहाँ भी द्रव्यको नित्य माननेसे उसका अन्वय-व्यतिरेक कार्योंके साथ नहीं बन सकता है, जिस प्रकार कि ईश्वरका अन्वयव्यतिरेक नहीं बनता। तथा पर्यायोंको क्षणिकअनित्य स्वीकार करनेसे उनका भी अन्वय-व्यतिरेक नहीं बन सकता है। कारण, जब पूर्व पर्याय नाश हो जाती है तब उसके असद्भावमें ही उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है और जब तक वह बनी रहती है तब तक उत्तरपर्याय उत्पन्न नहीं होती। अन्यथा-पूर्व पर्यायके सद्भावमें ही यदि उत्तर
1. द 'नत्विदं'।
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