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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ३५ भेदस्वीकारत्वात् । कथञ्चिद्भेदाभेदौ हि कथञ्चित्तादात्म्यम् । तत्र कथञ्चिद्भेदाश्रयणाद्धर्मर्मिणोः कथञ्चित्तादात्म्यमिति भेदविभक्तिसद्भावात् भेदव्यवहारसिद्धिः । कथञ्चिदभेदाश्रयणात्तु धर्ममिणावेव कथञ्चित्तादात्म्यमित्य दव्यवहारः प्रवर्त्तते; धर्ममिव्यतिरेकेण कथञ्चिद्भेदाभेदयोरभावात् । कथञ्चिभेदो हि धर्म एव, कञ्चिदभेदस्तु धर्म्यव, कथञ्चिभेदाभेदौ तु धर्मर्मिणावेवैवं सिद्धौ, तावेव च कथञ्चित्तादात्म्यं वस्तुनोऽभिधीयते । तच्छब्देन वस्तुनः परामर्शात, तस्य वस्तुनः आत्मानौ तदात्मानौ तयोर्भावस्तादात्म्यं भेदाभेदस्वभावत्वम्, कथञ्चिदिति विशेषणेन सर्वथा भेदाभेदयोः परस्परनिरपेक्षयोः प्रतिक्षेपातत्पक्ष निक्षिप्तदोषपरिहारः। परस्परसापेक्षयोश्च परिग्रहाज्जात्यन्तरव
भेदाभेदरूप हमने स्वीकार किया है । यथार्थमें कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद ये दोनों ही कथंचित् तादात्म्य हैं। जब कथंचित् भेदकी विवक्षा होती है तब 'धर्म और धर्मीका कथंचित् तादात्म्य' इस प्रकार भेदविभक्ति (भेदकी ज्ञापक छठवीं विभक्ति ) होनेसे भेदव्यवहार किया जाता है और जब कथंचित् अभेदकी विवक्षा होती है तब 'धर्म और धर्मी ही कथंचित् तादात्म्य हैं' इस तरह अभेदका व्यवहार प्रवृत्त होता है। क्योंकि धर्म और धर्मीसे अलग कथंचित् भेद और अभेद नहीं हैं। वास्तवमें धर्म ही कथंचित् भेद है और धर्मी ही कथंचित् अभेद है एवं धर्म और धर्मी दोनों ही कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद हैं और ये दोनों-कथंचित भेद और कथंचित् अभेद ही वस्तुके कथंचित् तादात्म्य कहे जाते हैं अर्थात् उन दोनोंको ही वस्तुका कथंचित् तादात्म्य कहते हैं। तादात्म्यमें जो 'तत्' शब्द है उसके द्वारा वस्तुका ग्रहग है । अतः 'तस्य वस्तुनः आत्मानो तदामानौ तयोर्भावस्तादात्म्यं भेदाभेदस्वभावत्वम्' अर्थात् वस्तुके जो दो स्वरूप हैं एक भेद और दूसरा अभेद, इन दोनोंको तादात्म्य कहा जाता है। तात्पर्य यह कि वस्तुके भेदाभेदस्वभावको तादात्म्य कहते हैं। और 'कथंचित्' इस विशेषणको लगानेसे परस्पर निरपेक्ष-आपसमें एक-दूसरेकी अपेक्षासे रहित-सर्वथा भेद और सर्वथा अभेदका निराकरण हो जाता है और इसलिये उन पक्षोंमें प्राप्त दूषणोंका परिहार हो जाता है। तथा
1. प्राप्तप्रतिषु 'कथञ्चिद्भदस्वीकारत्वात' पाठः । 2. दद्धः '। 3. मु स प 'क्षे'।
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