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कारिका ३५ ]
ईश्वर-परीक्षा
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च' कथञ्चित्तादात्म्यपक्षस्य बाधिकेति कथमयं पक्षः क्षेमङ्करः प्रेक्षावतामक्षूणमालक्ष्यते " ? यदि पुनः कथञ्चित्तादात्म्यं धर्मधर्मिणोभिन्नमेवा - भ्यनुज्ञायते ताभ्यामनवस्थापरिजिहीर्षयाऽनेकान्तवादिना तदा धर्मधर्मणोरेव भेदोऽनुज्ञायतां सुदूरमपि गत्वा तस्याश्रयणीयत्वात् । तदनाश्रयणे भेदव्यवहारविरोधादित्यपरः ।
$ ११२. सोऽप्यनवबोधाकुलितान्तःकरण एव; कथञ्चित्तादात्म्यं हि धर्मधर्मिणोः सम्बन्धः । स चाविष्वग्भाव एव तयोर्जात्यन्तरत्वेन सम्प्रत्ययात् व्यवस्थाप्यते । धर्मधर्मणोरविष्वग्भाव इति व्यवहारस्तु न सम्बधान्तरनिबन्धनो यतः कथञ्चित्तादात्म्यान्तरं सम्बन्धान्तर मनवस्थाकारि परिकल्प्यते । तत एव कथञ्चित्तादात्म्याद्धर्मधार्मिणोः कथञ्चित्तावाम्यमिति प्रत्ययविशेषस्य करणात् । कथञ्चित्तादात्म्यस्य कथञ्चिद्भेदा
अवस्थित रहेगा और चौथे, पाँचवें आदि कथंचित् तादात्म्योंको माननेपर अनवस्था आयेगी । इस तरह वही अनवस्था कथंचित् तादात्म्यको स्वीकार करने में भी बाधक है । इसलिये विद्वज्जन इस पक्षको कल्याणकारी और निर्दोष कैसे मान सकते हैं ? अगर इस अनवस्था दोषको दूर करना चाहते हैं तो जैनोंके लिये कथंचित् तादात्म्यको धर्म और धर्मीसे जुदा ही स्वीकार करना चाहिये और तब यही उचित है कि धर्म और धर्मी में ही भेद माना जाय, क्योंकि आगे जाकर उसे स्वीकार करना ही पड़ता है । उसे स्वीकार न करनेपर धर्म और धर्मी में जो भेद व्यवहार प्रसिद्ध है वह नहीं बन सकेगा ?
$ ११२. जैन – आपके इस कथनसे आपकी अज्ञता ही प्रकट होती है, क्योंकि धर्म और धर्मीमें जो हमारे यहाँ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध बतलाया गया है वह उन दोनोंसे विजातीय ( विलक्षण ) सुप्रतीत होनेसे अविष्वग्भावरूप अर्थात् अपृथक् ही सिद्ध होता है । धर्म और धर्मी में अविवभाव है, यह व्यवहार अन्य दूसरे आदि सम्बन्धोंसे नहीं होता, किन्तु स्वरूपतः ही हो जाता है जिससे कि दूसरे आदि कथंचित् तादात्म्योंकी कल्पना करनी पड़ती और अनवस्था प्राप्त होती । अतः उसी कथंचित् तादात्म्यसे धर्म और धर्मी में अथवा धर्म और धर्मीका कथंचित् तादात्म्य है, यह प्रत्ययविशेष उत्पन्न हो जाता है । कथंचित् तादात्म्यको कथंचित्
1. मु स प प्रतिषु 'च' नास्ति ।
2. द 'क्ष्येत' ।
3. द 'हि' नास्ति ।
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