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________________ ११४ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३५ प्रत्यासत्तिरिति प्रादुर्भवति, किं वाऽनन्तरभाव एव, कथञ्चित्तादात्म्ये वा? तत्र सर्वथा भेदाभेदयोर्बाधकसद्भावात्कथञ्चित्तादात्म्यमनुभवतोरेव तथा प्रत्ययेन भवितव्यम्, तत्र बाधकानुदयात् ।। $ १११. ननु चैकानेकयोः कथञ्चित्तादात्म्यमेव धर्मर्मिणोः प्रत्यासत्तिः स्याद्वादिभिरभिधीयते । तच्च यदि ताभ्यां भिन्नं तदा न तयोर्व्यपदिश्येत । तदभिन्नं चेत्, कि केन व्यपदेश्यम् ? यदि पुनस्ताभ्यां कथञ्चित्तादात्म्यस्यापि परं कथञ्चित्तादात्म्यमिष्यते तदा प्रकृतपर्यनुयोगस्यानिवृत्तेः परापरकथञ्चित्तादात्म्यपरिकल्पनायामनवस्था स्यात् । सैव ( धर्म और धर्मी )से सर्वथा भेद मानने पर 'ईश्वर और उसकी अवस्था में सम्बन्ध है' इस प्रकारसे उत्पन्न होता है ? अथवा क्या उनमें अभेद माननेपर उत्पन्न होता है ? या क्या उनमें कथंचित् तादात्म्य-(किसी दृष्टिसे भेद और किसी दृष्टिसे अभेद दोनों मिले हुये )-माननेपर पैदा होता है ? उनमें, सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद माननेमें तो बाधक मौजूद हैं-अनेक दोष आते हैं और इसलिये ईश्वर तथा अवस्थामें सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद स्वीकार करनेपर उक्त प्रत्ययविशेष उत्पन्न ही नहीं हो सकता है। अब रह जाता है सिर्फ कथंचित् तादात्म्य, सो उसको मानते ही धर्म और धर्मी में उक्त प्रत्ययविशेष उपपन्न हो जाता है, उसमें कोई बाधा अथवा दोष नहीं आता। परन्तु इस तरह ईश्वर तथा अवस्थामें कथंचित् तादात्म्य मान लेनेपर पूर्वोक्त दोष बना रहता है। अर्थात् अवस्थाओंकी अनेकतासे ईश्वरके अनेकता और ईश्वरकी एकतासे धर्मों में एकताका प्रसङ्ग तदवस्थ है । १११. वैशेषिक-एक और अनेकके कथंचित् तादात्म्यको हो आप ( जैन ) धर्म और धर्मीका सम्बन्ध बतलाते हैं, सो वह ( तादात्म्य) यदि उन दोनों ( एक और अनेक ) से जुदा है तो 'वह उनका है' यह व्यपदेश ( कथन ) नहीं हो सकेगा । और यदि जुदा नहीं है-अभिन्न है तो कौन किसके द्वारा अभिहित होगा ? अर्थात् अभेदमें दोनोंकी एकरूप परिणति हो जानेसे कोई किसीके द्वारा अभिहित नहीं हो सकता। अगर कहा जाय कि वह उन दोनोंसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है तो उसका भी तीसरा कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न सम्बन्ध मानना पड़ेगा और उस हालतमें प्रकृत प्रश्नकी निवृत्ति नहीं हो सकती-वह ज्यों-का 1. मु 'व्यपदिश्ते'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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