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कारिका ३५ ]
ईश्वर-परीक्षा विशेषस्यैव धर्मधामिणोफँदैकान्तेऽनुपपत्तेः सह्यविन्ध्यादिवत्प्रतिपादनात् ।
$ ११०. यदि पुनः प्रत्यासत्तिविशेषादीश्वरतदवस्थयो|देऽपि धर्मर्धामसम्प्रत्ययविशेष: स्यान्न तु सह्यविन्ध्यादीनाम, तदभावादिति मतम; तदाऽसौ प्रत्यासत्तिर्धर्ममिभ्यां भिन्ना, कथं च धर्ममिणोरिति व्यपदिश्येत न पुनः सह्यविन्ध्ययोरिति विशेषहेतुर्वक्तव्यः। प्रत्यासत्त्यन्तरं तद्धतुरिति चेत, तदपि यदि प्रत्यासत्तितद्वद्भ्यो भिन्नं तदा तदव्यपदेशनियमनिबन्धनं प्रत्यासत्त्यन्तरमभिधानीयं तथा चानवस्थानात्कुतः प्रकृतप्रत्यासत्तिनियमव्यवस्था ? प्रत्ययविशेषादेवेति चेत्, ननु स एव विचार्यो वर्तते; प्रत्ययविशेषः किं प्रत्यासत्तेस्तद्वद्भ्यां सर्वदा भेदे सतीश्वरतदवस्थयोः
धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद माननेपर धर्म-धर्मीप्रत्ययविशेष ही नहीं बन सकता है। जैसे सह्याचल और विन्ध्याचल आदिमें नहीं बनता है। वास्तवमें जब धर्म, धर्मीसे और धर्मी, धर्मोसे सर्वथा भिन्न माना जाय तो सह्याचल-विन्ध्याचल, जीव-अजीव आदिकी तरह धर्म-मिभाव कदापि उनमें नहीं बन सकता है ।
$ ११०. वैशेषिक-बेशक आपका प्रतिपादन ठीक है, लेकिन हमारा मत यह है कि ईश्वर और उसकी अवस्था में सम्बन्धविशेष है और इसलिये दोनोंमें भेद होने पर भी धर्म-धर्मीप्रत्ययविशेष बन जाता है। परन्तु सह्याचल और विन्ध्याचल आदिमें नहीं बन सकता, क्योंकि उनमें सम्बन्धविशेष नहीं है ?
जैन-अच्छा तो यह बतलाइये कि वह सम्बन्धविशेष धर्म और धर्मीसे जब जुदा है तो धर्म और धर्मी में धर्म-धर्मीभाव है, यह कथन कैसे हो सकेगा? और सह्याचल तथा विन्ध्याचलमें नहीं है, यह कैस निर्णय होगा? अतः इसका कोई विशेष कारण बतलाना चाहिये। यदि दूसरा सम्बन्ध उसका कारण कहा जाय तो वह दूसरा सम्बन्ध भी यदि पहले सम्बन्ध और धर्म-धर्मीसे जुदा है तो उस पहले सम्बन्ध तथा धर्म-धर्मीका यह दूसरा सम्बन्ध है, ऐसे कथनके नियमका कारण अन्य तीसरा सम्बन्ध कहना चाहिये और उस हालतमें अनवस्था नामका दोष प्राप्त होता है फिर कैसे धर्म-धर्मीकी व्यवस्थाके लिये माने गये पहले सम्बन्धविशेषकी व्यवस्था होगी? अगर प्रत्ययविशेषसे उसको व्यवस्था मानी जाय तो वही विचारणीय है कि वह प्रत्ययविशेष क्या सम्बन्धका सम्बन्धवानों
1. मु 'व्यपदिश्यते' पाठः ।
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