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________________ ११० [ कारिका ३५ पावकविशिष्ट 7 धूमस्य पर्वताद्यन्वयव्यतिरेकानुनिधान मनुमन्यताम् । पर्वताद्यन्वयव्यतिरेकानुकरणं धूमस्यानुमन्यत एव तद्वदवस्थाविशिष्टेश्वरान्वयव्यतिरेकानुकरणं तन्वादिकार्याणां युक्तमनुमन्तुम् इति चेत ; न; पर्वतादिवदीश्वरस्य भेदप्रसंगात् । यथैव हि पावकविशिष्टपर्वतादेरन्यः पावकाविशिष्टपर्वतादिः सिद्धः तद्वत्कारणान्तरसन्निधानलक्षणावस्थाविशिष्टादीश्वरात्पूर्वं तदविशिष्टेश्वरोऽन्यः कथं न प्रसिद्ध्येत् ? $ १०६. स्यान्मतम् - द्रव्याद्यनेक विशेषणविशिष्टस्यापि सत्तासामान्यस्य यथा न भेदः समवायस्य वानेकसमवायिविशेषणविशिष्टस्याप्येकत्वमेव तद्वदनेकावस्थाविशिष्टस्यापीश्वरस्य न भेदः सिद्ध्येत् तदेकत्वस्यैव प्रमाणतः सिद्धेरिति; तदेतत्स्वगृहमान्यम्; सत्तासामान्यसमवाययोरपि स्वविशेषणभेदाद्भ ेदप्रसिद्धेर्व्य तिलङ्घयितुमशक्तेः, तस्यैकानेकस्व आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका पर्वत के साथ अन्वयव्यतिरेक मानिये अगर कहें कि पावकविशिष्ट पर्वतके साथ धूमका अन्वयव्यतिरेक हम मानते ही हैं उसी प्रकार अवस्थाविशिष्ट ईश्वरका अन्वयव्यतिरेक शरीरादिक कार्योंके साथ मानना योग्य है तो यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि पर्वतादिककी तरह ईश्वरके भेद मानना पड़ेगा | जिसप्रकार पावकविशिष्ट पर्वतादिकसे भिन्न पावकसे अविशिष्ट पर्वतादिक सिद्ध हैं उसीप्रकार अन्य कारणोंकी सन्निकटतारूप अवस्था से विशिष्ट ईश्वरसे पहले उक्त अवस्थासे अविशिष्ट ईश्वर भिन्न ( जुदा ) क्यों सिद्ध नहीं हो जायगा ? अर्थात् पावकसहित और पावकरहित पर्वतादिककी तरह ईश्वर भो दो प्रकारका सिद्ध होगा । एक उपरोक्त अवस्थारहित और दूसरा उपरोक्त अवस्थासहित । लेकिन यह सम्भव नहीं है क्योंकि ईश्वर में वैशेषिकोंके लिए भेद अनिष्ट है । $ १०६. वैशेषिक - हमारा अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार सत्तासामान्य द्रव्यादि अनेक विशेषणोंसे विशिष्ट होनेपर भी उसमें भेद नहीं होता - वह एक ही बना रहता है । अथवा, जिसप्रकार समवाय अनेक समवायि विशेषणोंसे विशिष्ट होनेपर भी एक ही रहता है—अनेक नहीं हो जाता उसीप्रकार ईश्वर अनेक अवस्थाओंसे विशिष्ट होनेपर भी नाना नहीं हो जाता वह एक ही प्रमाणसे सिद्ध है ? जैन - यह आपके ही घरकी मान्यता है, क्योंकि सत्तासामान्य और समवाय दोनों ही अपने विशेषणोंके भेदसे अनेक हैं, वे इस अनेकताका 1. द 'पावकाविशिष्टपर्वतादिः पावकविशिष्टपर्वतादेरन्यः सिद्धः । स प्रतौ 'सिद्ध:' स्थाने 'प्रसिद्धः ' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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