SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका ३५ ] ईश्वर - परीक्षा भावतयैव प्रमाणगोचरचारित्वात् । तदेतेन नानामूर्तिमद्रव्यसंयोगविशिट्रस्य व्योमात्मादिविभुद्रव्यस्याभेदः प्रत्याख्यातः, स्वविशेषणभेदाभेदसम्प्रत्ययादेकानेकस्वभावत्वव्यवस्थानात् । $ १०७. योऽप्यवस्थावतोऽवस्थां पदार्थान्तरभूतां नानुमन्यते तस्यापि 'कथमवस्थाभेदादवस्थावतो भेदो न स्यादवस्थानां वा' कथमभेदो न भवेत् ?, तदर्थान्तरत्वाभावात् । $ १०८. स्यादाकूतम् - अवस्थानामवस्थावतः पदार्थान्तरत्वाभावेऽपि न तदभेदः, तासां तद्धर्मत्वात् । न च धर्मो धर्मणोऽनर्थान्तरभेव धर्मधमिव्यवहारभेदविरोधात् । भेदे तु न धर्माणां भेदाद्धमिणो भेदः प्रत्येतु शक्येतः, यतोऽवस्थाभेदादीश्वरस्य भेदः सम्पाद्यत इति; तदपि स्वमनो उल्लंघन नहीं कर सकते हैं । कारण, सत्तासामान्य और समवाय दोनों एक और अनेक स्वभाववाले ही प्रमाणसे प्रतीत होते हैं । इस कथनसे नाना मूर्तिमान् द्रव्यों के संयोगसे विशिष्ट आकाशादि विभुद्रव्यों को एक मानना भो निरस्त हो जाता है क्योंकि वे भी अपने विशेषणों के भेदसे भिन्न प्रतीत होनेसे एक और अनेक स्वभाववाले व्यवस्थित होते हैं । १११ $ १०७. यदि अवस्थाको अवस्थावान् से भिन्न न मानें तो अवस्थाओंको नाना होनेसे अवस्थावान् भी नाना क्यों नहीं हो जायगा ? अथवा, अवस्थाएँ एक क्यों नहीं हो जायेंगी ? क्योंकि अवस्थाएँ अवस्थावान्से भिन्न नहीं हैं - अभिन्न हैं और अभेदमें एक दूसरेरूप परिणत हो जाता है । $१०८. वैशेषिक - यद्यपि अवस्थाएँ अवस्थावान्से अलग नहीं हैं फिर भी वे एक नहीं हो जातीं, कारण वे उसका धर्म हैं और धर्म, धर्मी से अभिन्न नहीं होता - वह भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है, अन्यथा, धर्म और धर्मी इस प्रकारका जो धर्म-धर्मीका भेदव्यवहार प्रसिद्ध है वह नहीं बन सकता है । इस तरह जब धर्म और धर्मी में भेद सिद्ध है तो धर्मोके भेदसे धर्मीका भेद नहीं समझा जा सकता है, जिससे कि अवस्थाओंके भेदसे ईश्वरके भेद बतलाया जाय । तात्पर्य यह कि अवस्थाएँ अवस्थावान्से अन्य पदार्थों की तरह भिन्न न होते हुए भी वे उसका धर्म हैं और वह उनका धर्मी है और इस तरह अवस्था तथा अवस्थावान् में धर्म-धर्मीभाव है और यह भी प्रकट है कि धर्म नाना ही होते हैं और धर्मी एक ही होता है । यह नहीं कि धर्मोके नानापनसे धर्मी में नानापन और धर्मी के 1. ब 'च' पाठः । 2. द 'सम्पद्यते' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy