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________________ १०८ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३५ मनुत्पत्तेर्व्यतिरेकनिश्चयात्, सर्वत्रावस्थापेक्षयैवावस्थावतोऽन्वयव्यतिरेकप्रतीतेरन्यथा तदसम्प्रत्ययात् । न हि अवस्थावति' सति कार्योत्पत्तिरिति वक्तुशक्यम्, सर्वावस्थासु तस्मिन्सति तदुत्पत्तिप्रसंगात् । नाप्यवस्थावतोऽसम्भवे कार्यस्यासम्भवः सुशको वक्तुम, तस्य नित्यत्वादभावानुपपत्तेः। द्रव्यावस्थाविशेषाभावे तु तत्साध्यकार्यविशेषानुत्पत्तेः सिद्धो व्यतिरेकोऽन्वयवत् । न चावस्थावतो द्रव्यस्यानाद्यनन्तस्योत्पत्तिविनाशशून्यस्यापहवो युक्तः, तस्याबाधितान्वय ज्ञानसिद्धत्वात, तदपह्नवे सौगतमतप्रवेशानुषंगात् कुतः स्याद्वादिनामिष्टसिद्धिः ? इति कश्चिद्वैशे होता तो तज्जन्य कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती । अतः व्यतिरेकका निश्चय हो जाता है। सब जगह अवस्थाकी अपेक्षा से ही अवस्थावान्के अन्वय और व्यतिरेक प्रतीत होते हैं। यदि अवस्थाकी अपेक्षासे अन्वय और व्यतिरेक न हों तो उनका यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि अवस्थावान्के होनेपर कार्योत्पत्ति होती है और इसलिए अवस्थावान्के साथ अन्वय है। कारण, अवस्थावान् सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहता है और उस हालतमें सदैव कार्योत्पत्तिका प्रसंग आयेगा। अतः अवस्थावान्के साथ अन्वय न होकर अवस्थाके साथ हो अन्वय है। इसी प्रकार यह कहना भो सम्भव नहीं है कि अवस्थावान्के न होनेपर कार्य नहीं होता है और इसलिए अवस्थावान्के साथ व्यतिरेक है, क्योंकि अवस्थावान् नित्य है, इसलिए उसका अभाव कदापि सम्भव नहीं है। अतएव व्यतिरेक भी अवस्थावान्के साथ न होकर अवस्थाके साथ ही युक्त है। जब द्रव्यको अवस्थाविशेष नहीं होती तब उस अवस्थाविशेषसे होनेवाला कार्य उत्पन्न नहीं होता। अतः अन्वयको तरह व्यतिरेक भी अवस्थाकी अपेक्षासे सिद्ध है। यथार्थतः अवस्थावान् द्रव्यका, जो अनादि-अनन्त है और उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है, अपह्नव ( इन्कार-निषेध ) नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह निधि अन्वयप्रत्ययसे सिद्ध है। यदि उसका अपन्हव किया जायगा तो बौद्धमतके स्वीकारका प्रसंग आयेगा, फिर स्याद्वादियोंके अभीष्टकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? अतः अवस्थाकी अपेक्षासे ईश्वरके अन्वय और व्यतिरेक दोनों बन जाते है ? 1. सर्वप्रतिषु ‘अवस्थान्तरे पाठः' । 2. मु स प 'सुशक्तो ' पाठः। 3. व 'व्यतिरेक' इत्यधिकः पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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