SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०७. कारिका ३५ ] ईश्वर-परीक्षा ६१०३. स्यान्मतम्-न निमित्तकारणमात्रात्तन्वादिकार्याणामुत्पत्तिः समवाय्यसमवायि-कारणान्तराणामपि सद्भावे कार्योत्पत्तिदर्शनात् । न च सर्वकार्याणां युगपत्समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणसद्भावः, क्रमेणैव तत्प्रसिद्धः । ततः कारणान्तराणां वैकल्यात्तथा युगपत्सर्वत्र कार्याणामनुत्पत्तिरितिः तदपि कार्याणां नेश्वरज्ञानहेतुकत्वं साधयेत; तदन्वयव्यतिरेकासिद्धः। सत्यपीश्वरज्ञाने केषाञ्चित्कार्याणां कारणान्तराभावेऽनुत्पत्तेः कारणान्तरसद्भाव एवोत्पत्तेः कारणान्तरान्वयव्यतिरेकानुविधानस्यैव सिद्धेस्तत्कार्यत्वस्यैव व्यवस्थानात् । १०४. ननु च सत्येव ज्ञानवति महेश्वरे तन्वादिकार्याणामुत्पत्तरन्वयोऽस्त्येव, व्यतिरेकोऽपि विशिष्टावस्थापेक्षया महेश्वरस्य विद्यत एव । कार्योत्पादनसमर्थकारणान्तर सन्निधानविशिष्टेश्वरेऽसति तत्कार्याणा १०३. वैशेषिक-हमारा कहना यह है कि केवल निमित्त कारगसे शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु समवायि और असमवायि कारणोंके भी होनेपर कार्योत्पत्ति देखी जाती है और समस्त कार्योंके समवायि, असमवायि और निमित्तकारणोंका सद्भाव एक-साथ सम्भव नहीं है क्योंकि वे क्रमसे ही प्रसिद्ध होते हैं। अतः अन्य कारणोंका अभाव रहनेसे एक-साथ सर्वत्र कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती ? ___ जैन-इस कथनसे भी कार्य ईश्वरज्ञानहेतुक सिद्ध नहीं होते, कारण कार्योंके साथ ईश्वरज्ञानका अन्वय और व्यतिरेक दोनों असिद्ध हैं। ईश्वरज्ञानके होनेपर भो कितने ही कार्य अन्य कारणोंके अभाव में उत्पन्न नहीं होते और अन्य कारणोंके सद्भावमें हो उत्पन्न होते हैं, अतः कार्योंका अन्य कारणोंके साथ हो अन्वय और व्यतिरेक सिद्ध होता है और इसलिए शरीरादिक कार्योंको अन्य कारणोंके ही कार्य मानना चाहिए। $१०४. वैशेषिक-ज्ञानवान् महेश्वरके होनेपर ही शरीरादिक कार्य उत्पन्न होते हैं इसलिए अन्वय सिद्ध है और व्यतिरेक भो विशिष्ट अवस्थाकी अपेक्षासे महेश्वरके मौजूद है, क्योंकि कार्यके उत्पादक जो समर्थ कारण हैं उन कारणोंकी सन्निकटतासे विशिष्ट ईश्वर जब नहीं 1. स 'तन्निमित्त' पाठः । 2. समुप 'निमित्त' इत्यधिकः पाठः । 3. द 'कारणासन्निधान' । मु 'कारणान्तरासन्निधान' । 4. मु 'तत्' नास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy